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दर्शनप्राभृतम् व्याकरण-छन्दो-ऽलङ्कार-साहित्य-सिद्धान्तादीन् ग्रन्थान् जानाना अपि ( आराहणाविरहिया ) जिनवचनमाननलक्षणामारावनामकुर्वाणा लौंका; पातकिनः (भमंति तत्थेव तत्येव ) तत्रैव तत्रैव नरकादिष्वेव दुर्गतिषु भ्राम्यन्ति, न कदाचिदपि मोक्षं लभन्त इत्यर्थः ॥४॥
सम्मतविरहिया णं सुठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंहि बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडोहिं ॥५॥ सम्यक्त्वविरहिता णं सुष्ठु अपि उग्र तपश्चरन्तः णं ।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः ।।५।। (सम्मत्तविरहिया णं ) सम्यक्त्वविरहिताः सम्यक्त्वात् ये विरहिताः पतिताः । णमिति वाक्यालङ्कारे । ( सुठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं ) सुष्ठु अपि अतीवापि उग्रं तपः कुर्वन्तोऽपि मासोपवासादिकं तपोविशेषमाचरन्तोऽपि । णमिति वाक्यालङ्कारे । (लहंहि बोहिलाहं ) ते पुरुषा बोधिलाभं सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रलक्षणोपलक्षिता या
व्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य और सिद्धान्त आदि ग्रन्थों को जानते हुए भी जिनेन्द्र देव के वचनों को श्रद्धारूप आराधना से रहित होने के कारण, नरकादि दुर्गतियों में ही घूमते हैं-कभो मोक्ष प्राप्त नहीं करते।
[जिनागम में श्रावकों और मुनियों की अपने अपने पद के अनुरूप अनेक प्रशस्त क्रियाओं का वर्णन किया गया है। जो लोग उन क्रियाओं का निषेध करते हैं वे जिनागम की श्रद्धा से रहित हैं और फलस्वरूप सम्यक्त्वरूपी रत्न से च्युत हैं। ऐसे जीव तर्क-व्याकरण आदि लौकिक ग्रन्थ तो दूर रहे, ग्यारह अङ्गों और नौ पूर्वो को भी जानते हों, तो भी सम्यक्त्व से रहित होने के कारण मिथ्यादृष्टि हो कहे जाते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवों का संसारपरिभ्रमण निश्चित ही है। जिनागम में सम्यक्त्व रहित नाना शास्त्रों के ज्ञान को निःसार एवं सम्यक्त्व सहित मात्र अष्ट प्रवचन-मातृका के ज्ञान को सारपूर्ण बताया गया है। ] ||४|| ___ गाथार्थ-सम्यग्दर्शन से रहित मनुष्य अच्छी तरह कठिन तपश्चरण करते हुए भी हजार करोड़ वर्षों में भी रत्नत्रयरूप बोधिको नहीं प्राप्त कर पाते हैं ।।५।। - विशेषार्थ-जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से पतित हैं वे भले ही अतिशय कठिन मासोपवास आदि विशिष्ट तपों का आचरण करते हों तो भी
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