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षट्प्राभृते
[ १. ४
सिज्झति ) सम्यग्दर्शनात्पतिता न सिध्यन्ति मोक्षं न प्राप्नुवन्ति, भव्यसेनादिवत् वशिष्ठर्ष्यादिवच्च संसारे निमज्जन्ति, इति ज्ञात्वा श्रुतकीर्तिश्रेयांसादिप्रमाणपुरुषरुप प्रवर्तितं दान - पूजादिसत्कर्म न निषेधनीयम् | आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थः ॥ ३ ॥
सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाई सत्थाई । आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥ ४ ॥
सम्यक्त्वररत्नभ्रष्टा जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि । आराधनाविरहिता भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥४॥
( सम्मत्तरयणभट्ठा) सम्यक्त्वरत्न भ्रष्टाः सम्यक्त्वमेव रत्नं सर्वेभ्यो भावेभ्य उत्तमं वस्तु त्रैलोक्यपस्त्यसमुद्योतकत्वात्, तस्माद् भ्रष्टाः परिच्युता दान-पूजादिकनिषेधकाः (जाणंता बहुविहाई सत्थाइं ) जानन्तोऽपि बहुविधानि शास्त्राणि तर्क -
के लिये चारित्र आवश्यक नहीं है, सम्यग्दर्शन ही आवश्यक है; और इस विवेचन के अनुरूप मोक्षमार्ग में सम्यक्चारित्र को गोण कर देते हैं । सो उनका यह विवेचन आगमसंगत नहीं है । इस गाथा में तो कुन्दकुन्द महाराज ने यही भाव प्रकट किया है कि जो श्रावक या मुनि अपने चारित्र से भ्रष्ट होते समय सम्यग्दर्शन से भी भ्रष्ट हो गया है अर्थात् अपनी श्रद्धा को भी छोड़ चुका है वह निर्वाण से बहुत दूर हो गया है अर्थात् वह अर्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाण काल तक संसार में भटक सकता है, परन्तु जो मात्र चारित्र से भ्रष्ट हुआ है - समीचीन श्रद्धा को सुरक्षित रखे हुए है - वह शीघ्र अनुकूल सामग्री पाकर विशुद्ध चारित्र को धारण करता हुआ निर्वाण को प्राप्त हो सकता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में से किसी को गौण या प्रधान नहीं किया जा सकता, क्योंकि तीनों ही अनिवार्य आवश्यक कारण हैं ] ||३||
गाथार्थ – सम्यक्त्वरूपी रत्नसे भ्रष्ट मनुष्य भले ही अनेक प्रकारके शास्त्रों को जानते हों तो भी जिनवचनोंकी श्रद्धासे रहित होनेके कारण वहीं के वहीं अर्थात् उसो चतुर्गंतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं ||४||
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विशेषार्थ - तोन लोकरूप भवनका प्रकाशक होनेसे सम्यक्त्वरूपं रत्न ही समस्त पदार्थों में उत्तम वस्तु है । इस सम्यक्त्वरूपो रत्नसे पतित होकर जो दान-पूजा आदि प्रशस्त कार्योंका निषेध करते हैं वे तर्क
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