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दर्शनप्राभूतम्
दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभटुस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण
-१. ३ ]
दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टा दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् । सिध्यन्ति चरित्रभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिध्यन्ति ॥ ३ ॥
सिज्यंति ॥ ३ ॥
( दंसणभट्ठा भट्ठा) सम्यग्दर्शनात्पतिताः पतिता उच्यन्ते । ( दंसणभट्ठस्स गुत्थि णिव्वाणं) सम्यग्दर्शनात् पतितस्य सर्वकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो न भवति, किन्तु सम्यग्दर्शनात्पतिता नरकादिगतिषु परितो दीर्घकालं पर्यटन्ति । ( सिज्झति चरियभट्ठा ) सिध्यन्ति आत्मोपलब्धिमनुभवन्ति प्राप्नुवन्ति । के ते ? चरियभट्ठा चारित्रात्पतिता यति-श्रावकलक्षणब्रह्मचर्य - प्रत्याख्यानाभ्यां स्खलिताः, सामग्री प्राप्य श्रेणिक महराजादिवत् स्तोकेन मोक्षं प्राप्नुवन्ति । ( दंसणभट्ठा ण
गाथार्थ - सम्यग्दर्शन में भ्रष्ट प्राणी भ्रष्ट कहे जाते हैं, सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट प्राणी को निर्वाण नहीं प्राप्त होता । चारित्र से भ्रष्ट प्राणी तो सिद्ध हो जाते हैं - मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, पर सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट प्राणी सिद्ध नहीं हो सकते - मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ॥ ३ ॥
विशेषार्थ - जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से पतित हो जाते हैं वे ही यथार्थ में पतित कहलाते हैं । सम्यग्दर्शन से पतित मनुष्य को समस्त कर्मों का क्षय हो जाना जिसका लक्षण है ऐसा मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन से पतित मनुष्य नरकादि गतियों में दीर्घ काल तक - अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहता है। इसके विपरीत जो चारित्र से भ्रष्ट हैं अर्थात् श्रावक और मुनि पद के योग्य ब्रह्मचर्यं तथा चारित्र से भ्रष्ट हैं वे अनुकूल सामग्री को पाकर श्रेणिक महाराज आदि के समान थोड़े ही समय में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । सम्यग्दर्शन से पतित मनुष्य भव्यसेन आदि मुनियों अथवा वशिष्ठ आदि ऋषियों के समान मोक्ष प्राप्त नहीं करते, किन्तु संसार-सागर में निमग्न रहते हैं । ऐसा जान कर राजा श्रेयांस आदि यशस्वी एवं प्रामाणिक पुरुषों के द्वारा चलाये हुए दान-पूजा आदि प्रशस्त कार्यों का निषेध नहीं करना चाहियेउनमें सदा श्रद्धा भाव रखना चाहिये ||
[ इस गाथा का विवेचन करते समय कितने ही लोग " चारित्र से भ्रष्ट मनुष्य सिद्ध हो जाते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मनुष्य सिद्ध नहीं होते" इसका यह फलितार्थं निकाल कर विवेचन करते हैं कि मोक्ष
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