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________________ षट्प्रभृ [ १.२ शासनदेवता न पूजनीयाः, आत्मैव देवो वर्तते । अपरः कोऽपि देवो नास्ति, वीरादनन्तरं किल केवलिनोऽष्ट जाता न तु त्रयः, महापुराणादिकं किलं विकथा इत्यादि ये उत्सूत्र ं मन्वते ते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकाः । ते यदि जिनसूत्रमुल्लङ्घन्ते तदास्तिकैयु क्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भिगू थलिप्ताभिमुखे ताडनीयाः, तत्र पापं स्ति ॥२॥ ६ सुकुमारता और लघुता अर्थात् वजन में हलका होना; जिसमें ये पांच गुण हों वही पिछी प्रशंसा के योग्य है | मिथ्यादृष्टि यह भी कहते हैं कि 'शासनदेवता पूजनीय नहीं हैं, आत्मा ही देव है, उसके सिवाय अन्य कोई देव नहीं है; भगवान् महावीर के बाद आठ केवली हुए हैं, न कि तीन महापुराण आदिक विकथाएँ हैं । इत्यादि प्रकार से जो शास्त्र के विरुद्ध मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि चार्वाक अथवा नास्तिक हैं । वे यदि जिनसूत्र का उल्लंघन करते हैं तो आस्तिक —–सम्यग्दृष्टि मनुष्यों को युक्तिपूर्ण वचनों द्वारा उन्हें मना करना चाहिये। क्योंकि प्रभावशाली - समर्थ धर्म के समूल मनुष्य विनाश को सहन नहीं करते । धर्म-प्रभावना में कुछ सावद्य प्रवृत्ति होती ही है उसके बिना वह संभव नहीं है । धर्म ही प्राणियों की माता है, धर्म ही उनका पिता है, धर्म ही रक्षक है, धर्मं ही वृद्धि करनेवाला है और धर्म ही उन्हें निर्मल एवं निश्चल परम पद में पहुँचानेवाला हैं, धर्म का नाश होने पर सत् पुरुषों का भी नाश हो जाता है । अतः जो धर्मद्रोही नीच पुरुषों का निवारण करते हैं उन्हीं के द्वारा सज्जनों के जगत् की रक्षा होती है ॥ २ ॥ १. सम्यग्दृष्टि जीव जिनशासन की प्रभावना में सहायक होने से शासनदेवताओं का सन्मान करता है, परन्तु जिनेन्द्र देव के समान उनकी पूजा नहीं करता और न उन्हें देव मानता है । उसकी श्रद्धा वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी देव — अरहन्त - सिद्धमें ही रहती है । भय, आशा, स्नेह तथा लोभ के वशीभूत होकर वह रागी द्वेषी देवों को नहीं पूजता है । २. धर्मं-निर्मूलविध्वंस सहन्ते न प्रभावकाः । नास्ति सावद्यलेशेन विना धर्मप्रभावना ।।४१६॥ धर्मो माता पिता धर्मो धर्मस्त्राताभिवर्धकः । घर्मो भवभृतां धर्मो निश्चले निर्मले पदे ।।४१७॥ धर्मध्वंसे सतां ध्वंसस्तस्माद्धमं द्रुहोऽघमान् । निवारयन्ति ये सन्तो रक्षितं तैः सतां जगत् ॥ ४९८ ॥ - उत्तरपुराण पर्व ७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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