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________________ - १.७ ] दर्शनप्राभृतम् कथंभूताः ? ( कलिकलुसपावरहिया ) कलिषु कर्मसु यानि कलुषाणि दुष्टानि पापानि मोहनीय-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयान्तरायलक्षणानि दुरितानि तै रहिता:क्षयंनीतघातिकर्माण इत्यर्थः । अथवा कलौ पञ्चमकाले कलुषाः कश्मलिनः शौचधर्मरहिताः वर्णान् लोपयित्वा यत्र तत्र भिक्षाग्राहिणः मांसभक्षिगृहेष्वपि प्रासुकमन्नादिकं गृह्णन्तः कलिकलुषाः, ते च ते पापाः पापमूर्तयः श्वेताम्बराभासाः लौकांयकापरनामानो म्लेच्छश्मशानास्पदेष्वपि भोजनादिकं कुर्वाणास्तद्धर्मरहिताः कलिकलुषपापरहिताः श्रीमूलसंघे परमदिगम्बरा मोक्षं प्राप्नुवन्ति लोकास्तु नरकादी पतन्ति, देव -गुरु-शास्त्रपूजादिविलोपकत्वादित्यर्थः ॥६॥ सम्मत्त सलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्म ॥७॥ सम्यक्त्व सलिलप्रवाहो नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ||७|| युक्त हैं वे कलि अर्थात् कर्मों में अतिशय दुष्ट पाप प्रकृतिरूप मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन चार घातिया कर्मों से रहित हो शीघ्र ही अर्थात् उसी भव में अथवा दूसरा भव देव पर्याय में व्यतीत कर तृतीय भव में उत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर पद प्राप्त करते हैं । ११ यहाँ संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरि ने 'कलि- कलुषपापरहिता: ' इस पद का दूसरा अर्थ ऐसा किया है कि जो कलि अर्थात् पञ्चम काल में कलुष हैं - मलिन हैं, शोचधर्म से रहित हैं, ब्राह्मणादि वर्णों का लोप कर चाहे जहाँ भिक्षा ग्रहण करते हैं, मांसभोजी लोगों के घरों में भी प्रासु अन्न आदि ग्रहण करते हैं, पापरूप हैं, म्लेच्छों तथा श्मशानवासी लोगों के घर भी भोजन करते हैं तथा धर्म से रहित हैं, ऐसे श्वेताम्बराभास लौंकायक नामधारी लौंक कलिकलुषपाप कहलाते हैं । उन्हें छोड़ परम दिगम्बर मुद्रा के धारी मनुष्य ही केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं, किन्तु लौंका देव गुरु शास्त्र की पूजा का विलोप करने के कारण नरकादि कुगतियों में पड़ते हैं ||६|| गाथार्थ - जिसके हृदय में सम्यक्त्वरूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवाहित रहता है उसका कर्मरूपी बालू का बाँध बद्ध होने पर भी नष्ट हो जाता है ||७|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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