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________________ षट्प्राभृते - [१.८( सम्मत्तसलिलपवहो ) सम्यक्त्वसलिलप्रवाहः सम्यक्त्वमेव सलिलं निर्मलशीतल-सुगन्ध-सुस्वादुपानीयं संसारसंतापनिवारकत्वात् पापमलकलङ्कप्रक्षालकत्वाच्च सम्यक्त्वसलिलम्, तस्य प्रवहः प्रवाहः पूरः । ( णिच्चं हियए पवट्टए जस्स ) नित्यं हृदये वर्तते यस्य, जलपूरवद्वहतीत्यर्थः ( कम्मं वालुयवरणं) हिंसादि पञ्चपातकपापं वालुकापाली। (बंधच्चिय ) बद्धमपि । ( णासए तस्स) नश्यति तस्य । सम्यग्दृष्टेलग्नमपि पापं 'बन्धनं न याति कौरघटे स्थितं रज इव न बन्धं याति । परदेवकृतनमस्कारोऽपि पापमायाति । उक्तञ्च सकृद्वारे नमस्कारे परदेव कृते सति । परदारेषु लक्षेषु तस्मात्पापं चतुर्गुणम् ॥ . जे सणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य।। एदे भट्ठविभट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ॥८॥ ये दर्शनेष भ्रष्टा ज्ञाने भ्रष्टाश्चरित्रभ्रष्टाश्च ।। एते भ्रष्टविभ्रष्टाः शेषमपि जनं विनाशयन्ति ।।८।। विशेषार्थ-संसाररूपी संताप का निवारक तथा पापमलरूपी कलङ्क का प्रक्षालक होने से सम्यग्दर्शन, निर्मल शीतल सुगन्धित और स्वादिष्ट पानी के समान है। जिस मनुष्य के हृदय में जलपूर के समान सम्यग्दर्शन सदा प्रवाहित रहता है-निरन्तर विद्यमान रहता है, उसका हिंसादि पाँच पापों से उत्पन्न कर्मरूपी बालू का बाँध चिर काल से निबद्ध होने पर भी नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार कोरे घड़े पर स्थित धूलि बन्धन को प्राप्त नहीं होती है उसी प्रकार सम्यग्दष्टि जीव के लगा हुआ पाप कर्म बन्ध को प्राप्त नहीं होता। परदेव को नमस्कार करना भी पाप है, क्योंकि कहा है-सकृदिति लाख परस्त्रियों के सेवन से जो पाप होता है कुदेव को एक बार नमस्कार करने पर उससे चौगुना पाप होता है। अर्थात् मिथ्यात्व, हिंसादि पाँच पापों की अपेक्षा, भयंकर पाप है ॥७॥ गाथार्थ-जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, ज्ञान से भ्रष्ट हैं, और चारित्र से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्टों में विशिष्ट भ्रष्ट हैं अर्थात् अत्यन्त भ्रष्ट हैं तथा अन्य मनुष्यों को भी भ्रष्ट कर देते हैं । ॥८॥ १. बन्धं न याति म. २. परदेव नमस्कारोपि म. ३. एकवारं म. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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