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________________ -१.९] दर्शनप्राभूतम् १३ ( जं दंसणेसु भट्ठा ) ये पुरुषा दर्शनेषु सम्यक्त्वेषु द्विविध-त्रिविध- दशविधेषु भ्रष्टाः पतिताः, अथवा दर्शने सुष्ठु भ्रष्टाः । तथा ( णाणे भट्ठा) अष्टविधाचारज्ञानादपि भ्रष्टाः । ( चरितभट्ठा य ) त्रयोदशप्रकाराच्चारित्राद् भ्रष्टाः । ( एदे भट्ठविभट्ठा ) एते भ्रष्टा विशेषेण भ्रष्टास्त्रिभ्रष्टत्वात् । ( सेसं पि जणं विणासंति ) शेषमपि जनमभ्रष्टमपि लोकं विणासंति विनाशयन्ति भ्रष्टं विकुर्वन्ति ॥ ८ ॥ जो को वि धम्मसीलो संजमतवणियमजोयगुणधारी । तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गत्तणं दिति ॥९॥ यः कोऽपि धर्मशीलः संयमतपोनियम योगगुणधारी । तस्य च दोषान् कथयन्तो भग्ना भग्नत्वं ददति ॥ ९॥ विशेषार्थ - निसर्गज और अधिगमज अथवा निश्चय और व्यवहार के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है; औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकारका है; तथा आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ के भेद से दश प्रकारका होता है | शब्दाचार, अर्थाचार, तदुभयाचार, कालाचार, उपधानाचार, विनयाचार, अनिह्नवाचार और बहुमानाचार के भेद से ज्ञान के आठ भेद हैं । पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्ति के भेद से चारित्र के तेरह भेद हैं । जो मनुष्य उपर्युक्त भेदों से युक्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषय में भ्रष्ट हैं अर्थात् उनसे रहित हैं वे भ्रष्टों में अत्यन्त भ्रष्ट हैं तथा अन्य अभ्रष्ट मनुष्यों को भी भ्रष्ट कर देते हैं । तात्पर्य यह है कि जो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय में से किसी एक दो गुणों की अपेक्षा भ्रष्ट है वह कारण पाकर शीघ्र सुधर जाता है, पर जो तीनों की अपेक्षा भ्रष्ट हो चुका है अर्थात् मिथ्यादृष्टि बन कर अपने लक्ष्य से च्युत हो चुका है वह स्वयं तो भ्रष्ट हुआ ही है, साथ में रहनेवाले अन्य लोगों को भी भ्रष्ट कर देता है ||८|| गाथार्थ - जो धर्मशील - धर्मके अभ्यासी संयम, तप, नियम, योग और चौरासी लाख गुणों के धारी महापुरुषों के दोष कहते हैं - उनमें मिथ्या दोषों का आरोप करते हैं वे चारित्र से पतित हैं तथा दूसरों को भी पति करते हैं ॥ ९ ॥ १. अस्सिन् पक्षे दर्शने सुभ्रष्टा इति छाया योजनीया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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