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________________ १४ षप्राभृते [१.९(जो को वि धम्मसीलो ) यः कोऽपि धर्मशीलो धर्मे आत्मस्वरूपे उत्तमक्षमा'दिदशलक्षणे च धर्मे, पञ्चप्रकारे त्रयोदशप्रकारे चारित्रे च प्राणिनां रक्षणलक्षणे वा धर्मे शीलमभ्यासः समाधिरभ्यासो यस्य स धर्मशीलः । उक्तं च 'धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । चारित्तं खलु धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो । ( संजमतवणियमजोयगुणधारी ) तथा यः कोऽपि संयम-तपोनियम-योग-गुणधारी वर्तते । संयमश्च षडिन्द्रिय-षट्प्रकारप्राणिरक्षणलक्षणः । तपश्च द्वादशप्रकारम् । नियमश्च नियतकालवतधारणम् । उक्तं च- ... नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारात् । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो घियते ॥ विशेषार्थ-वस्तुस्वभाव को धर्म कहते हैं, इस लक्षण के आधार पर आत्मा को वीतराग परिणति धर्म कहलाती है। अथवा उत्तम, क्षमा, मादव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म कहलाते हैं । अथवा चारित्र ही धर्म है, इस लक्षण के अनुसार सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात के भेद से पांच प्रकार का; अथवा पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के भेद से तेरह प्रकार का चारित्र धर्म कहलाता है । अथवा जोवों की रक्षा करना धर्म है, इस लक्षण के अनुसार जीवदया को धर्म कहते हैं। इन सब लक्षणों का संग्रह करनेवाली निम्नलिखित प्राचीन गाथा प्रसिद्ध है-'धम्मो वत्थु' इत्यादि । वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा आदि दश धर्म हैं, चारित्र धर्म है, अथवा जीवों की रक्षा करना धर्म है। पांच इन्द्रियों एवं मन को वश में करना तथा पाँच स्थावर और एक त्रस इस तरह छह काय के जीवों की प्राणरक्षा करना संयम है । अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह प्रकार के बाह्य; तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह प्रकार के अन्तरङ्ग; दोनों मिला कर बारह प्रकार के तप हैं। किसी निश्चित काल तक व्रत धारण करना-भोगोपभोग की वस्तुओं का त्याग करना नियम है । जैसा कि कहा गया है नियमो इत्यादि-भोग ( एक बार भोग में आनेवाले भोजन आदि ) और उपभोग ( बार बार भोग में आनेवाले वस्त्र आदि) के त्याग में नियम १. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षायाम् । २. रत्नकरण्डश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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