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दर्शनप्राभृतम्
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योगश्च वर्षादिकालस्थितिः । अथवात्मध्यानं योग उच्यते । उक्तं च वीर
नन्दिशिष्येण पद्मनन्दिना -
'साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ॥
गुणाश्चतुरशीतिलक्षसंख्याः । के ते चतुरशीतिगुणा इति चेदुच्यन्ते हिंसानृतस्तेय-मैथुन - परिग्रह- क्रोष - मान-माया - लोभ - जुगुप्सा-भय- रत्यरतय इति त्रयोदश दोषाः, मनोवचन - कायदुष्टत्वमिति षोडश, मिथ्यात्वं प्रमादः पिशुनत्वमज्ञानमिन्द्रियाणामनिग्रह एतैः पञ्चभिर्मेलिता एकविंशतिर्दोषा भवन्ति । तेषां त्यागा एकविंशतिगुणा भवन्ति । अतिक्रम व्यतिक्रमातिचारानाचारत्यागैश्चतुभिगुणिता
और यम ये दो विधियां बतलाई गई हैं । जो किसी निश्चित समय तक त्याग होता है उसे नियम कहते हैं और जीवन पर्यन्त के लिये जो धारण किया जाता है उसे यम कहते हैं ।
योग का अर्थ – वर्षायोग -- वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे बैठकर आत्मा का ध्यान करना, शिषिरयोग - शीत ऋतु में खुले मैदान अथवा नदियों के किनारे बैठकर ध्यान करना, अथवा ग्रीष्मयोग — गर्मी में पर्वत की चट्टानों पर बैठकर ध्यान करना; ये तीन योग कहलाते हैं । अथवा आत्म ध्यान को योग कहते हैं । जैसा कि वोरनन्दी के शिष्य पद्मनन्दी ने कहा है
साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चेतोनिरोध और शुद्धोपयोग ये एकार्थवाचक शब्द हैं ।
गुण चौरासी लाख होते हैं जो इस प्रकार हैं--हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, भय, रति और अरति; ये तेरह दोष हैं । इन तेरह में मनोदुष्टता, वचनदुष्टता और कायदुष्टता ये तीन दोष मिला देने से सोलह दोष होते हैं । इन सोलह में मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता - चुगली, अज्ञान और इन्द्रियों का निग्रह नहीं करना ये पांच मिला देने से इक्कीस दोष होते हैं । इन इक्कीस दोषों का त्याग करना इक्कीस गुण हैं। वह त्याग अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार के त्याग से चार प्रकार का होता है । अतः उन इक्कीस में चार का गुणा करने पर चौरासी (८४) भेद होते हैं। इन चौरासी में पृथिवी
१. एकत्वसप्तती पद्मनन्द्याचार्यस्य ।
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