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________________ षट्पामते (एयं जिणेहि कहियं ) एतद्धातिसंघातपातनादिकं फलं आत्मध्यानस्य, जिनः सर्वज्ञः कथितं प्रमाणभूतवचनैः प्रतिपादितं । (सवणाणं सावयाण पुण पुणसु) श्रवणानां दिगम्बराणां महामुन्यपरसंज्ञानामृषीणामिति, न . केवलं श्रवणानां श्रावकाणां सदृष्टीनामुपासकानां च यतस्ते दीक्षायोग्या ध्यानाधिकारिणो देशव्रताः सन्त आत्मभावनापराः संसारविरक्तचित्ता आरक्षकगृहीतचौरवत् गृहपरित्यागपरिहारमनसः षोडशान्यतमस्वर्गगामिनः । पुनः पुनः भणितं तत्वज्ञानविज्ञानाथं च । ( संसारविणासयरं) सर्वशवीतरागवचनमिदं कथंभूतं ? संसारविनाशकरं मोक्षप्रदायकं । ( सिद्धियरं ) आत्मोपलब्धिकरं । ( कारणं) हेतुभूतं । (परमं) उत्कृष्टं उपदेशानामुपदेशोत्तमं । गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कं । तं माणे माइज्जइ सावय दुक्खक्खयट्ठाए ॥८६॥ गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिमलं सुरगिरिरिव निष्कम्पम । तद् ध्याने ध्यायते श्रावक ! दुःखक्षयार्थे ।।८६।। (गहिऊण य सम्मत्तं ) गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं तत्वार्थश्रद्धानलक्षणं । ( सुनिम्मलं सुरगिरीव निक्कंपं ) सुनिम्मलं-सुष्ठु अतिशयेन निर्मल निरतिचारं विशेषार्थ-घातिकर्मों के समूह को नष्ट करना आदि आत्मध्यान का फल है ऐसा जिनेन्द्र सर्वज्ञ देवने प्रमाण भूत वचनों द्वारा महामुनि इस दूसरे नामको धारण करने वाले दिगम्बर ऋषियों तथा सम्यग्दृष्टि श्रावकोंके लिये बारबार कहा है। मुनि दोक्षाको योग्यता रखनेवाले गृहस्थ भी ध्यान के अधिकारी हैं। क्योंकि आत्मा की भावना में तत्पर रहने वाले गृहस्थ भो देशव्रती होते हुए संसार से विरक्त चित्त रहते हैं । कोतवाल के द्वारा पकड़े हुए चोर के समान वे अपने गृहस्थाश्रम की गर्दा करते हैं गृह छोड़ने की इच्छा रखते हैं ऐसे श्रावक भो मर कर सोलह स्वर्गों में से किसी स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। सर्वज्ञ वीतराग देवका यह वचन संसार का विनाश करने वाला है तथा आत्मा को उपलब्धि करने का श्रेष्ठ कारण है ॥८५।। गाथार्य हे श्रावक ! अत्यन्त निर्मल और मेरुपर्वत के समान निश्चल सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर दुःखोंका क्षय करने के लिये ध्यान में उसोका ध्यान किया जाता है ।।६।। विशेषार्थ-श्रावक का वाच्यार्थ सम्यग्दृष्टि उपासक है अथवा 'श्रावयति धर्म' 'जो धर्म सुनावे वह श्रावक है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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