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________________ -५. ९५] भावप्राभृतम् ४५७ भेदाः । भोगभूमिजतिर्यग्भेद ४ स्थलचर पर्याप्त अपर्याप्त । नभश्चर पर्याप्त-अपर्याप्त । एवं ४ । एवं पंचेन्द्रियतियंग्भेद ३४ । विकलत्रयेभेद ९ । द्वीन्द्रियपर्याप्त अपर्याप्त लयपर्याप्त, त्रीन्द्रियपर्याप्त अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त, चतुरिन्द्रियर्पाप्त - अपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त । एवं ९ । मनुष्य भेद ९ । भोगभूमिजभेद २ पर्याप्त - अपर्याप्त, कुभोगभूमिजमनुष्य पर्याप्त अपर्याप्त, म्लेच्छखण्ड मनुष्य पर्याप्त - - अपर्याप्त, आर्यखण्ड मनुष्य पर्याप्त अपर्याप्तलब्ध्यपर्याप्त । एवंभेद ९ । एवं जीवसमासा अष्टानवतिः ( चउदसगुणठाणणामाई ) चतुर्दशगुणस्थाननामानि । यथा "मिच्छा सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदा पमत्त इयरो अपुत्र अणियट्टि सुहमो य ॥ १ ॥ भेद और संमूर्च्छनके पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तककी अपेक्षा तीन भेद होते हैं । इस तरह गर्भजके बारह और संमूर्च्छनके अठारह दोनोंके मिलाकर तीस भेद होते हैं उनमें भोगभूमिज तिर्यञ्च के चार भेद और जोड़नेसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके चौंतीस भेद हो जाते हैं । भोगभूमि में स्थलचर और नभश्चर ये दो ही भेद होते हैं, जलचर भेद नहीं होता । तथा स्थलचर और नभश्चरके पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो भेद होते हैं, अत. चार भेद होते हैं । विकलेन्द्रिय जीवोंके नौ भेद हैं जो इस प्रकार हैं- द्वीन्द्रिय के पर्याप्तक अपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकको अपेक्षा तीन भेद, त्रीन्द्रिय के पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्त ककी अपेक्षा तीन भेद और चतुरिन्द्रियके पर्याप्तक, अपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्त को अपेक्षा तीन भेद इस तरह तीनोंके मिलाकर नौ भेद होते हैं। मनुष्योंके नौ भेद हैं जो इस प्रकार हैं- भोगभूमिज मनुष्य के पर्याप्त और अपर्याप्तके भेद से दो भेद, कुभोग भूमिज मनुष्य के पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो भेद, म्लेच्छखण्डज मनुष्य के पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो भेद तथा आर्यखण्डज मनुष्यों के पर्याप्तक, अपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन भेद, सब मिलाकर नौ भेद होते हैं। इस तरह जीवसमासके कुल भेद अठानवे होते हैं । अब चौदह गुणस्थानों के नाम कहते हैं • मिच्छा - मिध्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, १. अनयोः छाया पूर्व गता । जीवकाच्ये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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