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षट्प्राभृते
उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलि जिणो सगुणठाणाणि य कमेण सिद्धा
[५.९५
अजोमी य । मुणेअव्वा ॥ २ ॥
उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलिजिन और अयोगकेवलि जिन ये चौदह गुणस्थान हैं, इनका विवरण आगम से जानना चाहिये। हे जीव ! तू इन सबकी भावना कर, इनका श्रद्धान कर ।
प्रकृत ग्रन्थ में गुणस्थान शब्द का प्रयोग कई जगह आया है इसलिये उसके स्वरूप तथा भेदों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है
मोह और योगके निमित्त से आत्मा के परिणामों में जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान के मिथ्यादृष्टि आदि चौदह भेद हैं । इनमें से प्रारम्भ के १२ गुणस्थान मोहके निमित्त से होते हैं और अन्त के २ गुणस्थान योग के निमित्त से । मोह कर्म की १ उदय, २ उपशम, ३ क्षय और ४ क्षयोपशम ऐसी चार अवस्थाएं होती हैं, इन्हीं के निमित्त से जीवके परिणामों में तारतम्य उत्पन्न होता है ।
उदय - आवाधा पूर्ण होनेपर द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार कर्मोंके निषेकों का अपना फल देने लगना उदय कहलाता है ।
उपशम - अन्तर्मुहूर्त के लिये कर्म-निषकों के फल देनेकी शक्तिका अन्तर्हित हो जाना उपशम कहलाता है। जिस प्रकार निर्मली या फटकली के सम्बन्ध से पानी की कीचड़ नीचे बैठ जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्य क्षेत्रादि का अनुकूल निमित्त मिलने पर कर्मके फल देने की शक्ति अन्तर्हित हो जाती है।
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क्षय-कर्म प्रकृतियों का समूल नष्ट हो जाना क्षय है, जिस प्रकार मलिन पानी में से कीचड़ के परमाणु बिल्कुल दूर हो जाने पर उसमें स्थायी स्वच्छता आ जाती है उसी प्रकार कर्म - परमाणुओं के बिल्कुल निकल जाने पर आत्मा में स्थायी स्वच्छता उद्भूत हो जाती है ।
क्षयोपशम - वर्तमान काल में उदय आनेवाले सर्वघाति स्पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय और उन्हीं के आगामी काल में उदय आने वाले निषेकों का सदवस्था रूप उपशम तथा देशघाति प्रकृतिका उदय रहना इसे क्षयोपशम कहते हैं । कर्म - प्रकृतियों की उदयादि अवस्थामें आत्माके जो भाव होते हैं उन्हें क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। जिसमें कर्मोकी उक्त अवस्थाएं कारण नहीं होतीं उन्हें
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