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-६. १०३]
मोक्षप्राभृतम्
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विहिं जं णविज्जइ झाइज्जइ झाइएहि अणवरयं । थुवंतेहि थुणिज्जइ देहत्थं कि पि तं मुणह ॥१३॥
नतेः यत् नम्यते ध्यायते ध्यातैः अनवरतम् ।
स्तूयमानः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् मनुत ।। १०३ ॥ ( णविरहिं जं णविज्जइ) नतैर्देवेन्द्रादिभिर्यन्नम्यते । (झाइज्जइ झाइएहि अणवरयं ) ध्यायतेऽहनिशं चिन्त्यते झाइएहि-ध्यातस्तीर्थकरपरमदेवैर्यधायते महनिशं शुक्लध्यानाथं सर्वकर्मक्षयार्थ तत्पदप्राप्त्यर्थ अनुचिन्त्यते । (थुव्वंतेहि युणिज्जइ ) स्तूयमानस्तीथंकरपरमदेवैयंत् स्तूयतेऽनन्तगुणोद्भावनतया प्रशस्यते । ( देहत्थं कि पितं मुणह ) देहस्थं शरीरमध्ये स्थित किमप्यपूर्वमनिर्वचनीयमासंसारमप्राप्तं तद्योगिनां प्रसिद्ध तत्वं आत्मस्वरूपं मुणह-जानीत यूयं । तदुक्त. तिलमध्ये यथा तैलं दुग्धमध्ये यथा घृतं ।
काष्ठमध्ये यथावह्निर्देहमध्ये तथा शिवः ।। १॥
गाथार्य-दूसरों के द्वारा नमस्कृत इन्द्रादिदेव जिसे नमस्कार करते हैं, दूसरों के द्वारा ध्यान-ध्यान किये गये तीर्थकर देव जिसका निरन्तर ध्यान करते हैं और दूसरों के द्वारा स्तूयमान-स्तुति किये गये तीर्थकर जिनेन्द्र भी जिसकी स्तुति करते हैं शरीर के मध्यमें स्थित उस अनिर्वचनीय आत्म तत्वको तुम जानो ॥ १०३ ॥
विशेषार्थ-यहां शरीर के मध्यमें स्थित रहने वाले आत्मतत्वको श्री कुन्दकुन्द भगवन्त ने कोई अनिर्वचनीय तत्व कहा है उसकी महिमा बतलाते हुए कहा है कि उस आत्मतत्वको दूसरों के द्वारा नमस्कृत इन्द्रादिक भी नमस्कार करते हैं, दूसरे प्राणी जिनका ध्यान करते हैं ऐसे तीर्थंकर भगवान् भी उसका ध्यान करते हैं तथा. समस्त लोग जिनकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे तीर्थकर भी उसकी स्तुति करते हैं। हे भव्यजीवो! उस आत्म तत्व को तुम जानो-उसीका मनन करो। यद्यपि वह आत्म तत्व तुम्हारे शरीर में ही स्थित है परन्तु आज तक तुम्हारा उस ओर लक्ष्य नहीं गया । कहा गया है-- -तिलमध्ये-जिस प्रकार तिल के बीच में तैल, दूध के बीचमें घी और काष्ठ के बीच में अग्नि रहती है उसी प्रकार शरीर के बीचमें शिव रहता है। यहां शिवका अर्थ आत्मतत्व है ॥ १.३ ॥
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