SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५.८३ ] भावप्राभृतम् ४३९ अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदु धम्मोत्ति जिणेहि णिढि ॥४३॥ आत्मा आत्मनि रतः रागादिषु सकलदोषपरित्यक्तः। संसारतरणहेतुः धर्म इति जिनैः निर्दिष्टः ।। ८३ ॥ ( अप्पा अप्पम्मि रओ ) आत्मा अत सातत्यगमने अतत्यूध्वं ब्रज्यास्वभावनोर्ध्वमेव गच्छतीत्यात्मा शुद्धबुद्ध कस्वभाव आत्मनि रतो निजशुद्धबुद्ध कस्वभावे एकलोलीभावभूतः । (रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो) रागादिषु रागादिभ्यः सकलदोषपरित्यक्तः रागद्वेषमोहलोभादिसकलदोषरहित इत्यर्थः । ( संसारतरणहेदु) संसारस्य तरणहेतुः कारणभूतः । (धम्मोत्ति जिणेहिं णिहिट्ठ) धर्म इति जिननिर्दिष्टं प्रतिपादितं जिनपूजा दिकं पुण्यमिति शेषः। तेन कारणेन जिनपूजादिषु द्वेषो न कर्तव्यः । उक्तं च योगीन्द्रदेवैः देवहं सत्थहं मुणिवरहं जो विद्देसु करेइ । नियमि पाउ हवेइ तसु जें ससारु भमेइ ॥१॥ गाथार्थ-आत्मा में लीन तथा रागादि समस्त दोषों से रहित यह आत्मा ही संसार सागर से पार होनेका कारण धर्म है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। [ यहाँ अभेद नयसे गुण गुणी में अभेद कर आत्मा को ही धर्म कहा है। ॥ ८३ ॥ विशेषार्थ-आत्मन् शब्द 'अत सातत्यगमने' धातूसे सिद्ध होता है अतः अतति इति आत्मा इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो ऊध्वं-गमन स्वभाव होनेसे ऊर्ध्व ही गमन करता है, वह आत्मा है [ अथवा गत्यर्थक धातुएँ ज्ञानार्थक भी होती हैं इस नियम से जो निरन्तर पदार्थों को जाने वह आत्मा है ] शुद्ध निश्चयनय से आत्मा शुद्ध बुद्धक स्वभाव है अर्थात् रागादि-रहित ज्ञायक मात्र है । जो आत्मा अपने इसी शुद्ध बुद्ध क स्वभाव में लीन है-तन्मयी भावको प्राप्त है और रागद्वेष मोह लोभ आदि समस्त दोषों से रहित है वह आत्मा ही संसार से पार होनेका कारण-भूत धर्म है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। जिन पूजा आदिक पुण्य हैं और परम्परा से मोक्षके कारण हैं। अतः उनमें द्वेष नहीं करना चाहिये । योगीन्द्र देवने कहा भी है...देवह-जो देव शास्त्र और श्रेष्ठ मुनियों से द्वेष करता है उसके नियम से वह पाप-बन्ध होता है जिससे संसार में भटकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy