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________________ षट्प्राभृते ४३८ [५.८२इति पुण्यधर्मयोः स्वरूपमुक्त्वेदानों निर्विकल्पसमाधिलक्षणं कर्मक्षयकारण कथयन्ति भगवन्तः सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि । पुणं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥८२॥ .. श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति । पुण्यं भोगनिमित्तं न हुतत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।८२|| ( सद्दहदि य ) श्रद्दधाति च तत्र विपरीताभिनिवेशरहितो भवति । ( पत्तेदि य ) प्रत्येति च मोक्षहेतुभूतत्वेन यथावत्तत्प्रतिप्रद्यते । ( रोचेदि य ) रोचते च मोक्षकारणतया तत्रैव रुचि करोति । तह (पुणो वि फासेदि) मोक्षार्थित्वात्तत्साधनतया स्पृशति अवगाहयति (पुणं भोयनिमित्त) एतत्पूजादिलक्षणं पुण्यं मोक्षार्थितया क्रियमाणं साक्षाद्भोगकारणं स्वर्गस्त्रीणामालिंगनादिकारणं तृतीयादिभवे मोक्षकारणं निर्गलिगेन। (ण है सो कम्मक्खयनिमित्तं ) न भवति हु-स्फुटं निश्चयेन साक्षात्तद्भवे गृहस्थलिंगेन कर्मक्षयनिमित्तं तद्भवे केवलज्ञानपूर्वकमोक्षनिमित्त पुण्यं न भवतीति ज्ञातव्य । इस प्रकार पुण्य और धर्मका स्वरूप कहकर अब भगवान् कुन्दकुन्द निर्विकल्पसमाधिरूप कर्मक्षयका साक्षात् कारण बतलाते हैं गाथार्थ-मोक्षका अभिलाषी जीव पुण्य की श्रद्धा करता है, पुण्य की प्रतीति करता है, पुण्य की रुचि करता है और पुण्यका स्पर्श करता है परन्तु पुण्य भोगका निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं है ॥८२॥ विशेषार्थ-मोक्षार्थी जीव पुण्यको मोक्षका कारण मानकर उसकी श्रद्धा करता है अर्थात् अपनी समझके अनुसार उसमें विपरीत अभिनिवेश से रहित होता है। उसकी प्रतीति करता है अर्थात् मोक्षका हेतु मानकर उसे यथायोग्य स्वोकार करता है। उसकी रुचि करता है अर्थात् मोक्षका कारण मानकर उसमें अपनी इच्छा प्रकट करता है और उसोका स्पर्श करता है अर्थात् उसे मोक्षका साधन समझ कर उसे प्राप्त करने का पूर्ण प्रयत्न करता है परन्तु यह स्पष्ट है कि मोक्षार्थी जीवके द्वारा किया जाने वाला यह पूजादि प्रवृत्ति रूप पुण्य साक्षात् तो भोगका ही कारण है अर्थात् देवाङ्गनाओं के आलिङ्गन का कारण है और तृतीय भवमें निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करने पर मोक्षका कारण है। यह पुण्य निश्चय से साक्षात अर्थात् उसी भव में गृहस्थ लिङ्ग द्वारा कर्मक्षयका निमित्त नहीं हैउसी भवमें केवल-ज्ञान-पूर्वक मोक्षका निमित्त पुण्य नहीं है, यह जानना चाहिये ।। ८२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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