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________________ षट्प्राभृते [ ५.८४ अस्य दोहकस्यायं भावः--देवशास्त्रगुरूणां प्रतिमासु निषेधिकादिषु च पुष्पा - दिभिः पूजादिषु च लौंका द्वेष कुर्वन्ति तेषां पापं भवति तेन पापेन ते नरकादी पतन्तीति ज्ञातव्यं । ४४० अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई करेदि णिरवसेसाई । तह विण पावदि सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो || ८४ ॥ अथ पुनः आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषाणि । तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनर्भाणितः ॥ ८४ ( अह पुण अप्पा णिच्छदि ) अथ पुनरात्मानं नेच्छति न भावयति ( पुण्णाई करेदि निरवसेस इं ) पुण्यानि करोति निरवशेषाणि पूजादांनादीनि सर्वाणि भोगा - कांक्षानिदानख्यातिपूजालाभादिकमभिलाषुकतया करोति विद्धाति परं जिनसम्यक्त्वे नान्तः-शून्यो निर्विवेकः बहिरात्मा जीवः । ( तह विण पावदि सिद्धि ) तथापि नानापुण्यानि कुर्वन्नपि जीवो न प्राप्नोति न लभते कां ? सिद्धि आत्मोपलब्धि - लक्षणां मुक्तिमिति जिनसम्यक्त्वरहितो दूरभव्योऽभव्या वा स ज्ञातव्य इत्यर्थः । यदि सिद्धि न प्राप्नोति तर्हि कोदृशो भवति ? ( संसारत्यो, पुणो भणिदो ) संसारस्थोऽनन्तसंसारी पुनर्भणित आगमे प्रतिपादितः । 2 इस दोहाका भाव यह है कि देवशास्त्र गुरुओंकी प्रतिमाओं तथा निषेधिका आदि धर्मायतनों को पुष्प आदि पूजा आदि करने में लौंका लोग द्वेष करते हैं, अतः उन्हें पाप बन्ध होता है और उसके फल स्वरूप वे नरकादि में पड़ते हैं ॥ ८३ ॥ गाथार्थ - यदि कोई आत्मा की भावना नहीं करता है और समस्त पुण्य करता है तो वह पुण्य करताहुआ भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है, संसारी ही कहा गया || ८४ ॥ विशेषार्थं - कितने ही जीव ऐसे हैं कि वे आत्मा को ओर लक्ष्य नहीं देते, मात्र भोगोंको आकांक्षा रूप निदान, ख्याति पूजा लाभ आदि इच्छा रख पूजा दान आदि समस्त पुण्य कर्म करते रहते हैं उन्हें आचार्यं महाराज ने जिन सम्यक्त्व से अन्तरङ्ग में शून्य, निर्विवेक बहिरात्मा कहा है। ऐसे जोव नाना प्रकारके पुण्य करते हुए भी आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिको नहीं पाते हैं। जिन सम्यक्त्व से रहित जीवको दूर भव्य या अभव्य जानना चाहिये। इन जीवोंको आगममें अनन्त संसारी कहा गया है ॥ ८४ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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