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षट्प्राभृते
[३. ३माधनन्दी धरसेनः पुष्पदन्त भूतबलि: जिनचन्द्रः कुन्दकुन्दाचार्यः उमास्वामी समन्तभद्रस्वामी शिवकोटिः शिवायनः पूज्यपादः एलाचार्यः वीरसेनः जिनसेनः नेमिचन्द्रः रामसेनश्चेति -प्रथमाङ्गपूर्वभागज्ञाः । अकलङ्कः अनन्तविद्यानन्दी माणिक्यनन्दो प्रभाचन्द्रः रामचन्द्र एते सुताकिकाः । वासवचन्द्रः गुणभद्र एतौ नग्नौ अन्ते वीराङ्गजश्च । ( णाऊण दुविहसुत्त) ज्ञात्वा द्विविधं सूत्रं अर्थतः शब्दतश्च द्विविधं सूत्रं । ( वट्टाइ सिवमग्गे जो भब्वो) वर्तते शिवमार्गे यो मुनिः स भव्यो रत्नत्रययोग्यो भवति मोक्षं प्राप्नोतीति भावः ॥२॥
सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुदि। सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा गोवि ॥३॥
सूत्रं हि जानानोऽभवस्य भवनाशनं च स करोति । ...
सूत्री यथा असूत्रा नश्यति सूत्रेण सह नापि ॥ ३ ॥ ( सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स ) सूत्रं शास्त्रानुक्रमं हि निश्चयेन जानानो जानन्, कस्य सूत्रं, ( अ ) भवस्स-'अभवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य । (भवणासणं च
~~~~~~~~~~~~~~~~~ ११ धर्मसेन ये ग्यारह दशपूर्वके धारक हुए। तदनन्तर १ नक्षत्र २ जयपाल ३ पाण्डु ४ ध्रुवसेन और ५ कंस ये पाँच ग्यारह अंग के धारक हुए। तदनन्तर १ सुभद्र २ यशोभद्र ३ भद्रबाहु और ४ लोहाचार्य ये चार एक अंम धारक हुए । तदनन्तर जिनसेन, अहंद्वलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्रस्वामी, शिवकोटि, शिवायन, पूज्यपाद, एलाचार्य, वीरसेन, जिनसेन, नेमिचन्द्र और रामसेन ये प्रथम अंगके पूर्वभागके ज्ञाता हए। अकलङ्क, अनन्त विद्यानन्दो, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र और रामचन्द्र ये सब उत्तम तार्किक अर्थात् न्यायशास्त्रके उच्च कोटिके विद्वान हए हैं। वासवचन्द्र और गुणभद्र ये दो दिगम्बर साधु हए और अन्तमें वीरांगज नामक साधु हुए* | जो अर्थ और शब्दकी अपेक्षा दो प्रकारके सूत्रको जानता है तथा मोक्षमार्गमें प्राप्ति करता है वह मुनि भव्य है रत्नत्रय के योग्य है तथा मोक्ष प्राप्त करता है ॥२॥
गाथार्थ-जो मनुष्य यथार्थमें सर्वज्ञ देवके शास्त्रको जानता है वह संसारका नाश करता है। जिस प्रकार सूत्र अर्थात् डोरासे रहित सुई नष्ट हो जाती है-गुम जाती है, उसी प्रकार सूत्र अर्थात् शास्त्रसे
२. न विद्यते भवो जन्म यस्य तस्य । *आचार्यों के ये नाम कालक्रम से नहीं हैं।
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