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________________ -३. ४ ] सूत्रप्राभृतम् १०९ सो कुर्णादि ) भवस्य संसारस्य नाशनं विनाशं स पुमान् करोति विदधाति तीर्थंकरो भूत्वाऽऽत्मानं प्रकटयति मुक्तो भवतीत्यर्थः । अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन दृढयति - ( सूई जहा असुत्ता णासदि) सूची लोहसूचिका वस्त्रदरका रिका असूत्रा दवरकरहिता नश्यति न लभ्यते । ( सुत्ते सहा णो वि) सूत्रेण सह वर्तमाना सूत्रेण दोरेण सहिता णो विनापि नश्यति हस्ते चटति ॥ ३ ॥ पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासह सो गओ वि संसारे । सच्चयणपच्चक्रवं णासदि तं सो अविस्समाणो वि ॥४॥ पुरुषोऽपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोऽपि संसारे । स्वचेतनाप्रत्यक्षेण नाशयति तं सोऽदृश्यमानोऽपि ॥ ४ ॥ ( पुरिसो वि जो ससुत्तो ) पुरुषोऽपि जीवोऽपि यः ससूत्रो जिनसूत्रसहितः । ( णविणासह सो गओ वि संसारे ) न विनश्यति स पुमान् गतोऽपि नष्टोऽपि संसारे. पतितोऽपि पुनरुज्जीवति मुक्तो भवति । ( सच्चेयणपच्चवखं ) आत्मानुभवप्रत्यक्षेण । ( णासदि तं सो अदिस्समाणो वि ) णासदि - नश्यति, अन्तरनर्थोऽयं रहित मनुष्य भी नष्ट हो जाता है— चतुर्गति रूप संसार में गुम जाता है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ - जो भव अर्थात् पुनर्जन्म से रहित हैं वे अभव अर्थात् सर्वज्ञ जिनेन्द्र कहलाते हैं । उन सर्वज्ञ- वीतराग जिनेन्द्रके सूत्र - आगमको जो जानता है वह भव अर्थात् संसारका नाश करता है - तीर्थङ्कर होकर अपने आपको प्रगट करता है - मोक्ष को प्राप्त होता है । इसी बात को सुईके दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं। जिस प्रकार वस्त्रमें छेद करने वाली लोहे - की सुई असूत्रा- डोरासे रहित होनेपर नष्ट हो जाती है उसी प्रकार सूत्र - शास्त्र से रहित मनुष्य नष्ट हो जाता है || ३ || गाथार्थ - जो पुरुष ससूत्र है - जिनागमसे सहित है वह संसारमें पड़ कर भी नष्ट नहीं होता है - शीघ्र मुक्तिको प्राप्त हो जाता है । वह स्वयं अप्रसिद्ध होनेपर भी आत्मानुभव के प्रत्यक्षसे उस संसारको नष्ट कर देता है ॥ ४ ॥ विशेषार्थ - जो जीव जिनागम की श्रद्धा और ज्ञानसे युक्त है वह यदि कदाचित् बद्धायुष्क होनेसे नरक तिर्यञ्च आदि गति रूप संसार में पड़ भी जाता है अथवा सम्यक्, दर्शनसे भ्रष्ट होकर अर्धंपुद्गलपरिवर्तन काल तक नाना गतियों में परिभ्रमण भी करता रहता है तो भी वह नष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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