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११० षट्प्राभृते
[३. ५-६ प्रयोगः तेनायमर्थः नाशयति तं संसारं स आसन्नभव्यजीवः । कथंभूतः ? अदिस्समाणोवि-अदृश्यमानोऽपि चतुर्विधसंघमध्येऽप्रकटोऽप्यप्रसिद्धोऽपि ॥ ४ ॥
'सुत्तत्थं जिण भणियं जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सट्ठिी ॥५॥
सूत्रार्थं जिनभणितं जीवाजीवादि बहुविधं अर्थम् ।।
हेयाहेयं च तथा यो जानाति स हि सदृष्टिः ।। ५ ।। ( सुत्तत्थं जिणभणियं ) सूत्रस्याथ जिनेन भणितं प्रतिपादितं । ( जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं ) जीवाजीवादिकं बहुविधमर्थ कर्मतापन्नं वस्तु । ( हेयाहेयं च तहा ) हेयं पुद्गलादिकं पञ्चप्रकारं, अहेयमादेयं निजात्मानं तथा तेनैव षड्वस्तुप्रकारेण । ( जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी ) यः पुमान् जानाति वेत्ति स पुमान् हु-.. स्फुटं सदृष्टिः सम्यग्दृष्टिर्भवति ॥ ५ ॥
जं सुत्तं जिणउत्तं ववहारो तह य जाण परमत्यो।
तं जाणिऊण जोई लहइ सुहं खवइ मलपुंजं ॥६॥ नहीं होता, पुनः सुमार्गपर आकर मोक्षको प्राप्त करता है। जो मनुष्य अदृश्यमान है-चतुर्विध संघमें अप्रकट अथवा अप्रसिद्ध है वह भी आत्मानुभवके प्रत्यक्ष द्वारा उस संसारको नष्ट कर देता है.।। ४ ।।
गाथार्थ-जो जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सूत्रके अर्थको, जीव अजीव आदि नाना प्रकारके पदार्थ को तथा हेय और उपादेय तत्वको यथार्थरूपसे जानता है वह सम्यग्दृष्टि है ॥ ५॥ .
विशेषार्थ-सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र ने आगम का जैसा अर्थ प्रतिपादित किया है, जीव अजीव आदि पदार्थोंका जैसा स्वरूप बतलाया है तथा हेय-छोड़नेयोग्य पुद्गलादि पाँच द्रव्योंका तथा अहेय-ग्रहण करने योग्य निज-आत्माका जैसा स्वरूप कहा है उसे जो वैसा ही जानता है वह स्पष्ट ही सम्यग्दृष्टि है ।। ५ ॥
गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने जो सूत्र कहा है उसे व्यवहार और निश्चय रूप जानो । उसे जानकर योगी आत्मसुख को प्राप्त होते हैं तथा पाप-पुञ्जको नष्ट करते हैं ।। ६॥
१. सूतत्वं । २. सूतं म०।
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