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षट्प्राभूते
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द्दिश्य निष्पन्नं तदन्नमुद्दिष्टमुच्यते । प्रगता असवः प्राणा यस्मात्तत्प्रासुकं चर्मजलादिभिरस्पृष्टमप्यन्नमात्मार्थं कृतं तत्संयतैनं सेव्यं । अत्र दृष्टान्तः - यथा मदनोद मत्स्यनिमित्तं कृते मत्स्या एव माद्यन्ति न तु दुर्दुरा भेका माद्यन्ति तथा यतिरपि दोषसहितमन्नमुद्दिष्टं न सेवते (१) अथाध्यवधिर्नाम दोषो द्वितीय उच्यते यतीनां - पाके क्रियमाणे आत्मन्यागते च सति तत्र पाके तन्दुला अम्बु चाषिकं क्षिप्यते सोऽव्यवधिर्दोष उच्यते, अथवा यावत्कालं पाको न भवति तावत्कालं तपस्विनां रोघः क्रियते सोऽध्यवधिर्दोष उत्पद्यते ( २ ) अथ पूतिनाम तृतीयं दोषमाहेयत्प्रासुकं पात्रं कांस्यपात्रादिकं मिध्यादृष्टिप्रातिवेशैमिथ्यागुर्वर्थं दत्तं तत्पात्रस्थमन्नादिकं महामुनीनामयोग्यं पूत्युच्यते (३) 'यर्वप्रासुकेन मिश्रं तन्मिश्रं ( ४ ) पाकभाजनाद्गृहीत्वा यदन्नं स्वगृहेऽन्यगृहे वा स्थापितं, अथवान्यस्मिन् भाजने भाण्डेऽन्नादिकं निष्पन्नं द्वितीये कांस्यपात्राद्वौ क्षिप्त्वा शोधनाद्यर्थं तृतीये भाजने मुच्यते तदन्नं मुनीनामयोग्यं किन्तु भाण्डान्मुनिभोजनपात्रे एव मुच्यते तस्माद्गृहीत्वा मुनये
किसीने मत्स्यों के निमित्त मादक जल तैयार किया तो उसमे मत्स्य हो मदको प्राप्त होते हैं मेण्डक नहीं, उसी प्रकार मुनि भो दोष सहित उद्दिष्ट अन्न का सेवन नहीं करते। यह पहला उद्दिष्ट नामका दोष है १ । अब अध्यधि नामक दूसरा दोष कहा जाता है - जहाँ तेयार होते हुए भोजन में मुनि पहुँचने पर और अधिक चावल तथा जल डाल दिया जाता है वह अध्यधि नामका दोष कहलाता है अथवा जब तकं भोजन पक कर तैयार नहीं हो जाता है तब तक मुनिको उच्चासन पर हो रोके रखना अधि नामका दोष है २ । आगे पूति नामका तीसरा दोष कहते हैं - काँसे आदिका जो प्रासुक पात्र मिथ्यादृष्टि पड़ोसियोंने मिथ्यागुरुओं के लिये दिया था उस पात्र में रक्खा हुआ अन्न आदिक महामुनियों के अयोग्य होता है ऐसा अन्न पूर्ति कहलाता है । भावार्थ - मिथ्यादृष्टि पड़ोसी काँसे आदि से निर्मित जिन पात्रों में भोजन रख कर मिथ्या गुरुओं को दिया करते हों उन्हीं पात्रोंको पड़ोसो के यहाँ से लेकर उसमें आहार रख मुनियों को देना पूर्ति दोष कहलाता है ३ । जो अप्रासुक आहारसे मिला हो वह मिश्रदोष से दूषित है जैसे अधिक गर्म जलको शीतल जलके साथ मिला कर पीने के योग्य बनाना ४ । पकाने के बर्तन से निकाल कर जो अन्न अपने घर में अथवा दूसरे के घर में अन्य बर्तन में रखा जाता है वह स्थापित नामका दोष है अथवा अन्य बर्तन में जो भोजन बना हो उसे कांसे आदि के दूसरे
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१. यत्प्रासुकेन म० ।
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