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________________ -५. ९९] भावप्राभृतम् ४६९ दीयते, अन्यथा स्थापितं नाम दोषः (५) यक्षादीनां बलिदानोद्धृतं अन्नं बलिरुच्यते, संयतागमनाथं बलिकरणं बलिः कथ्यते (६) अस्यां वेलायां दास्यामि अस्मिन् दिवसे दास्यामि, अस्मिन् मासे दास्यामि, अस्यामृतौ दास्यामि, अस्मिन् वर्षादौ दास्यामीति नियमेन यदन्न मुनिभ्यो दीयते तत्प्राभृतं कथ्यते (७) भगवन्निदं मदीयं गृहं वर्तते यत्रैवं गृहप्रकाशकरणं भवति निजगृहस्य गृहिणा प्रकटनं क्रियते, अथवा भाजनादीनां संस्कारः भाजनादीनां स्थानान्तरणं वा प्राविष्कृतमुच्यते (८) विद्यया क्रोतं द्रव्यवस्त्रभाजनादिना वा यत्क्रोतं तत्क्रीतं कथ्यते (९) कालान्त. रेणाव्याजेन वा स्तोकमणं कृत्वा यतीनां दानाथं यदर्जितं तत्प्रामृष्यं 'कथ्यते (१०) कस्यचिद्गृहस्थस्य ब्रीहीन् दत्वा शालयो गृह्यन्ते, अथवा निजं कूरं दत्वा परकूरो पात्र में रक्खा और फिर शोधने अथवा ठण्डा आदि करने के लिये तीसरे पात्र में रखा जाता है वह अन्न मुनियों के अयोग्य है किन्तु वनाने के वर्तन से निकाल कर सीधा उस बर्तन में रखना जिसमें से मुनिके लिये आहार दिया जा रहा हो ऐसा अन्न मुनियोंके योग्य होता है अन्यथा स्थापित नामका दोष होता है ५ । यक्ष आदिको बलि देनेके लिये जो अन्न निकाल कर रक्खा है वह बलि कहलाता है अथवा हमारे घर मुनि आगे तो उनके लिये यह अन्न दूंगर इस अभिप्राय से वर्तन से पृथक् रक्खा हुआ अन्न बलि कहलाता है ६ । 'मैं इस समय आहार दूंगा, इस दिन दूंगा, इस मास में दूंगा, इस ऋतु में दूंगा अथवा इस वर्ष में दूंगा, इस प्रकार के नियम से मुनियों के लिए जो अन्न दिया जाता है वह प्राभूत कहलाता है ७ । 'भगवन् ! यह मेरा घर है' इस प्रकार गृहस्थ द्वारा जिसमें अपने घरका प्रकाश-प्रकटो-करण किया जाता है अथवा जहां बर्तनों को सफाई अथवा स्थानान्तरण-एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना किया जा रहा हो जिससे मुनिको पता चलजावे कि अमुक व्यक्तिका घर यह है वह प्राविष्कृत दोष कहा जाता है ८। जो भोजन विद्या के द्वारा अर्थात् नृत्य दिखाकर, गाना सुनाकर या बाजा बजाकर खरीदा गया हो अथवा द्रव्य, वस्त्र या बर्तन आदि देकर लिया गया हो वह क्रीत नामका दोष है ९ । तुम मुझे अमुक वस्तु दे दो मैं इतने समय बाद वापिस दे दूंगा, मुझे मुनि को दान देनेक लिये इस वस्तु की आवश्यकता है, ऐसा कह कर अथवा कुछ प्रयोजन बिना बताये ही थोड़ा ऋण कर मुनियों को देनेके लिये जो अन्न इकट्ठा किया जाता है वह प्रामृष्य दोष कहलाता है १० । जहाँ १. मृष्यते म०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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