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________________ ४६७ -५. ९९] भावप्राभृतम् उद्गमाख्यषोडशदोषवर्जिता उत्पादनषोडशदोषः परित्यक्ता एषणादशदोषः परिहृताः संयोजनाप्रमाणाङ्गारघूमनामभिश्चतुभिदौषरुज्झिता ज्ञानाम्यासध्यानधर्मोपदेशमोक्षप्राप्त्यादिकारणोपेता एषणासमितिप्रोक्तक्रमप्राप्ताशनसेवा भिक्षाशुद्धिगुणसमूहरक्षादक्षा वेदितव्या तस्यां उदृिष्टादयः षोडशदोषा वर्जनीयाः । ते के ? तन्नामनिर्देशः क्रियते । उद्दिष्टः (१) अध्यवधिः (२) पूति ( ३ ) मिश्रं ( ४ ) स्थापितं (५) बलिः ( ६ ) प्राभृतं (७) प्राविष्कृतं (८) क्रीतं (९) प्रामृष्यः (१०) परिवर्तः ( ११ ) अभिहतं ( १२) उभिन्न (१३ ) मालिकारोहणं ( १४ ) आच्छेद्यं (१५ ) अनिसृष्टं ( १६ ) चेति षोडशोद्गमदोषाः । अथोद्दिष्टादीनां षोडशानामर्थविशेष उच्यते-यदन्नं स्वमुद्दिश्य निष्पन्नं तदुद्दिष्टं, अथवा संयतानुद्दिश्य निष्पन्न, अथवा पाषंडिनं उद्दिश्य निष्पन्नं, अथवा दुर्बलानु अतिनिन्दित अधः कर्म कहलाता है। वह अधःकर्म मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना के भेद से नौ प्रकार का होता है। जो आहार ऊपर कहे हुए अधःकर्म से रहित है, उद्गम के सोलह, उत्पादन के सोलह, एषणा के दश तथा संयोजन अप्रमाण अङ्गार और धूम नामक चार दोषों से रहित है, ज्ञानाभ्यास, ध्यान, धर्मोपदेश तथा मोक्ष प्राप्ति आदि कारणोंसे सहित है एवं एषणा समिति में कहे हुए क्रमसे प्राप्त है उसका सेवन करना भिक्षा शुद्धि है। यह भिक्षा-शुद्धि गुण समूह को रक्षा करने में दक्ष है । भिक्षा-शुद्धि में उद्दिष्ट आदि सोलह उद्गम दोष छोड़नेके योग्य हैं । अब उन सोलह उद्गम दोषों के नाम लिखते हैं-- १ उदिष्ट, २ अध्यवधि, ३ पूति, ४ मिश्र, ५ स्थापित, ६ बलि, ७ प्राभृत, ८ प्राविष्कृत, ९ क्रीत, १० प्राभृष्य, ११ परिवर्त, १२ अभिहंत, १३ उद्भिन्न, १४ मालिका-रोहण, १५ आच्छेद्य और १६ अनिसृष्ट । ... आगे इन उद्दिष्ट आदि सोलह उद्गम दोषोंका विशेष अर्थ कहा जाता है. जो अन्न अपने उद्देश्यसे बनाया गया है वह उद्दिष्ट है अथवा जो मुनियों को लक्ष्य कर बनाया गया है अथवा जो पाखण्डियों को लक्ष्य कर बनाया गया है, अथवा जो दुर्बल मनुष्यों को लक्ष्य कर बनाया गया है वह सब उद्दिष्ट कहलाता है । जिसमें से प्राण निकल चुके हैं वह प्रासुक कहलाता है, जो अन्न प्रासुक है तथा चमड़े में रखे हुए जल आदि से नहीं छआ गया है ऐसा अन्न भी यदि अपने लिये तैयार किया गया है तो वह मुनियों के लेने योग्य नहीं है। इस विषय में दृष्टान्त है-जिस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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