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________________ ६४८ षट्नाभृते [६.७३समभावदो ) समभावतः समतापरिणामे सति चारित्रं भवतीति निर्विकल्पसमाधिरूपं यथाख्यातं चारित्रं भवतीति भावार्थः । चरियावरिया वदसमिदिवज्जिया सुद्धभावपन्भट्टा । केई जपंति गरा ण हु कालो झाणजोयस्स ॥७३॥ . चर्यावरिका व्रतसमितिवजिता शुद्धभावप्रभ्रष्टाः । . केचित् जल्पन्ति नराः न हि कालो ध्यानयोगस्य ||७३|| (चरियावरिया ) चर्यायाश्चारित्रस्य आवरिका आवरणं येषां ते चर्यावरिकाः चारित्रमोहनीयकर्मयुक्ताः ( वदसमिदिवज्जिया) व्रतसमितिवजिता व्रतरहिताः समितिहीनाश्च । ( सुद्धभावपन्भट्ठा ) शुद्धभावप्रभ्रष्टा रागद्वेष मोहादिभिः परि. णामः कश्मलीकृता आत्मध्यानहीनाः । ( केई जंपंति णरा) केचिद्वहिरात्मानो नराः पुरुषा जल्पन्ति ववन्ति । कि जल्पन्ति ? (ण हु कालो प्राणजोयस्स) विशेषार्थ-मोह अर्थात् मिथ्यात्व और क्षोभ अर्थात् रागद्वेष के अभाव को समभाव कहते हैं । इस समभाव के प्रकट होनेपर मुनिके इष्ट अनिष्ट पदार्थोंके मिलने पर हर्ष विषाद उत्पन्न नहीं होता यही भाव हृदयंगत कर आचार्य महाराज कहते हैं कि निन्दा और प्रशंसा में समभाव रखने से चारित्र होता है, दुःख और सुख के प्राप्त होनेपर समभाव रखने से चारित्र होता है और शत्रओं तथा बन्धओं के संयोग होनेपर सम. भाव रखने से चारित्र होता है। यहां चारित्र पद से निर्विकल्प समाधि रूप यथाख्यान चारित्र का ग्रहण करना चाहिये ॥७२॥ आगे कोई कहते हैं कि यह ध्यानके योग्य समय नहीं है सो इसका निराकरण करते हैं___ गाथार्य-जो चारित्र को आवरण करने वाले चारित्रमोहनीय कर्म से युक्त हैं, व्रत और समिति से रहित हैं तथा शुद्धस्वभाव से च्युत हैं ऐसे कितने ही मनुष्य कहते हैं कि यह ध्यान रूप योग का समय नहीं है अर्थात् इस समय ध्यान नहीं हो सकता ॥७३॥ विशेषार्थ-योग के आठ अङ्ग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इन आठ अङ्गों में से ध्यान योग का सातवाँ अङ्ग है। कुछ लोग कहते हैं कि यह पञ्चम काल ध्यान के योग्य नहीं है अर्थात् इस समय ध्यान नहीं हो सकता है। परन्तु ऐसा कहने वाले हैं कौन ? जो चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे युक्त है, जो व्रती और समितियों से रहित हैं, तया जो राग, द्वेष और मोह रूप परिणामों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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