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________________ -४. १-२] बोधप्रामृतम् १३. क्रियायुक्त-जो कृतिकर्मसे युक्त हो उसे क्रिया-युक्त कहते हैं। छह आवश्यकों का पालन करना अथवा गुरुजनोंका विनय कर्म करना कृति-कर्म कहलाता है। १४. व्रतवान् जो व्रत धारण करने की योग्यता से सहित हो उसे ब्रतवान् कहते हैं। जो आचेलक्य-नग्न-मुद्रा को धारण करने वाला हो, औद्देशिक आदि दोषों को दूर करने वाला हो, गुरुभक्त हो तथा अत्यन्त नम्र हो वही साधु व्रत धारण के योग्य माना गया है। . १५. ज्येष्ठ सद्गुण-जिनमें उत्कृष्ट सद्गुणों का निवास हो उन्हें ज्येष्ठ-सद्गुण कहते हैं। जो जाति और कुल की अपेक्षा महान् हों, जो वैभव, प्रताप और कीर्ति की अपेक्षा गृहस्थोंमें भी महान् रहे हों, जो ज्ञान और चर्या आदिमें उपाध्याय तथा आर्यिका आदि से भी महान हैं एवं क्रिया-कर्म के अनुष्ठान द्वारा भी जिनमें श्रेष्ठता पाई जाती है वे ज्येष्ठता गुण से युक्त हैं। १६. प्रतिक्रमी-जो विधिपूर्वक देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुसिक और वार्षिक प्रतिक्रमण करते-कराते हों उन्हें प्रतिक्रमी कहते हैं। ... १७. षणमासयोगी-जो वसन्त आदि छह ऋतुओं में एक एक मास तक एक स्थान पर योग धारण करते हैं, अन्य समय विहार करते हैं वे षणमास-योगी कहलाते हैं। इसका दूसरा नाम मासिक-वासिता भी है। जो वर्षमें दो बार सिद्धक्षेत्रकी यात्रा करने वाला हो। १८. तद्विनिषषक-इसका दूसरा नाम अन्यत्र पाद्य दिया है जिसका अर्थ वर्षा ऋतु के चार मास में एक स्थान पर चतुर्मास योग धारण करना होता है। लाभ संभव न हो, तो श्रुत में विच्छेद न पड़े इसके लिये राजपिण्ड का भी ग्रहण किया जा सकता है अर्थात् ऐसी अवस्था में संयमी जन अपने तप संयम और ध्यान स्वाध्याय आदि के साधन को कायम रखने के लिये राजपिण्ड को भी ग्रहण कर सकते हैं क्योंकि उसको वयं जो माना है सो उपयुक्त दोषोंकी संभावना से ही माना है । अध्याय ९ श्लोक ८०-८१ । १. आचेलक्के य ठिदो उद्देसादीय परिहरदि दोसे । गुरुभत्तिमं विणीदो होदि वदाणं स अरिहो दु । -अनगार० अ०९ २. वर्ष वर्ष दो वारी तितिक्षेत्रयात्रां करोति (१० टि०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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