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________________ षट्प्राभृते [४. १-२'अरागभुक् [अराजभुक्] क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुणः । प्रतिक्रमी च षणमासयोगी तद्विनिषद्यकः ॥३॥ धर शब्द से कहे जाते हैं । जो शय्या अर्थात् शय्याधारके अशन-भोजनको ग्रहण नहीं करते उन्हें अशय्याशनो कहते हैं । १२. 'अराजभुक्--जो राजाओं के घरमें भोजन ग्रहण न करता हो । अथवा राजपिण्ड का त्यागी हो उसे अराजभुक् कहते हैं। ... १. आरोगभुक् म । २. आरोगभुक् म० । आरागभुक्क० ।। ३. राजपिण्ड त्यागका अभिप्राय अनगारधर्मामृत में इस प्रकार स्पष्ट किया है- . . -ऐसे घरोंमें जहां नाना प्रकार के भयंकर कुत्ते आदि जानवर स्वच्छन्द रूपसे फिरते रहते हैं उनके द्वारा उन घरों में प्रवेश करने पर संयमीका अपघात हो सकता है । मुनि के स्वरूप को देखकर वहां के घोड़े गाय भैंस आदि पशु विजुक सकते हैं और विजुक कर स्वयं त्रासको प्राप्त हो सकते हैं अथवा दूसरों को भी त्रास दे सकते हैं । यद्वा संयमी को भी उनसे त्रास हो सकता है। गर्व से उद्धत हुए वहां के नौकर चाकरों के द्वारा साधुका उपहास हो सकता है। अथवा महलों में रोककर रखी हुई और मैथुन संज्ञा-रमण करने की इच्छा से पीडित रहने वाली, यद्वा पुत्र आदि संतति की अभिलाषा रखने वाली स्त्रियां अपने साथ उपभोग करने के लिये उस संयमी को जबर्दस्ती अपने घरमें ले जा सकती है। सुवर्ण रत्न अथवा उनके बने हुए भूषण जो इधर उधर पड़े हों उनको कोई स्वयं चुराकर ले जाय और हल्ला कर दे कि यहां पर मुनि आये थे और तो कोई आया नहीं। ऐसी अवस्था में मुनिके ऊपर चोरी का आरोप उपस्थित हो सकता है। यहां पर ये साधु आते हैं सो कहीं ऐसा न हो कि महाराज इन पर विश्वास कर बैठे और इनकी बातों में आकर राज्यको नष्ट कर दें, ऐसे विचारों से क्रोधादिक के वशीभूत हुए दीवान-मंत्री आदिके द्वारा संयमीका वध बंधादिक भी हो सकता है । इनके सिवाय ऐसे स्थानों में आहारकी विशुद्धि मिलना कठिन है, दूध आदि विकृति का सेवन और लोभवश अमूल्य रल आदि की चोरी तथा पर-स्त्रियों को देखकर रागभाव का उद्रेक एवं वहां की लोकोत्तर विभूतिको देखकर उसके लिये निदान भावका हो जाना भी संभव है इत्यादि अनेक कारण हैं । कि जिनके निमित्त से राजपिण्डको वयं बताया है। अत एव जहां पर ये दोष संभव न हों अथवा दूसरी जगह आहार का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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