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-६. ३१-३२ ]
मोक्षप्राभृतम्
'जो सुत्ती ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो
अप्पणे कज्जे ॥३१॥ जागत स्वकार्ये । आत्मनः कार्ये ॥ ३१ ॥
यः सुप्तो व्यवहारे स योगी यो जागर्ति व्यवहारे स सुप्त ( जो सुत्तो ववहारे ) यो मुनिः सुप्तः क्व ? व्यवहारे व्यवहारमध्ये न पतितः । ( सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ) स योगी जागति सावधानो भवति, स्वकार्ये आत्मकार्ये कर्मक्षयविधाने । ( जो जग्गदि ववहारे ) यो योगी जागत सावधानो भवति, क्व ? व्यवहारे लोकोपचारे । ( सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ) स योगी मुनिः सुप्तो न वेदयतेऽसावधानो भवति आत्मनः कार्ये आत्मस्वरूपे । उक्तं च
जा निसि सयलह देहियहं जोग्गिउ तहि जग्गेइ । जहि पुणु जग्गइ सयलु जगु सा निसि भणेवि सुएइ ॥ १ ॥
इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं । शायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरदेण ॥ ३२ ॥ इति ज्ञात्वा योगी व्यवहारं त्यजति सर्वथा सर्वम् । ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रेण ||३२||
गाथार्थ -- जो मुनि व्यवहार में सोता है वह आत्म- कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है वह आत्म-कार्य में सोता है ॥ ३१ ॥
विशेषार्थ - जो मुनि लौकिक कार्योंसे उदासीन रहता है वह कर्मक्षय रूप आत्मकार्य में सावधान रहता है और जो लौकिक कार्योंमें जागरूक है वह आत्म- कार्य में उदासीन रहता है। जैसा कि कहा है-
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जा निसि- समस्त जीवोंके लिये जो रात्रि है उसमें योगी जागता है और जिसमें सब जगत् जागता है उसे योगी रात्रि कह कर सोता है ।
गाथार्थ - ऐसा जानकर योगी सब तरह से सब प्रकार के व्यवहार htछोड़ता है और जिनेन्द्र देवने जैसा कहा है उस प्रकार परमात्मा का ध्यान करता है ||३२||
१. व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे । जागति व्यवहारेऽस्मिन्
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सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥७८॥
-समाविशतके पूज्यपादस्य ।
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