________________
५९४
षट्नाभृते
[६.३०वात्मा । ( तम्हा जंपेमि केण हं ) तस्मात्कारणात केन सहाहं जल्पामि, अथवा केन कारणेन जल्पामि तेन मे मौनमेव शरणं।
सव्वासवणिरोहेण कम्मं खवदि संचिदं। ... जोयत्यो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं ॥३०॥
सर्वानवनिरोधेन कर्मक्षिपयति संचितम् ।
योगस्थो जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम् ॥३०॥ ( सव्वासवणिरोहेण ) सर्वेषामास्रवाणां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणानां निरोधेन निषेधेन ( कम्म खवदि संचिदं) कर्म क्षिपयति पूर्वोपार्जित तडागेऽभिनवजलप्रवेशाभावे संचितपूर्वजलशोषवत् । ( जोयत्यो जाणए जोई ) योगस्थः ध्यानस्थित आत्मकलोलीभावमिलितो जानाति केवलज्ञानमुत्पादयति योगी शुक्लध्यानविशेषागमभाषया केवली भवति । ( जिणदेवेण भासिय) सिद्धार्थनृपनन्दनेन वीरेण कथितमिति भावः ।,
श्लोक' लिखा है उससे प्रकट होता है। पं० जयचन्द्रजी ने अपनी वचनिका में 'न तत्' छाया स्वोकृत की भी है। ]
गाथाथ-सब प्रकार के आस्रवों का निरोध होनेसे संचित कर्म नष्ट होजाते हैं तथा ध्यान-निमग्न योगो केवल ज्ञानको उत्पन्न करता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ||३०||
विशेषार्थ-जिस प्रकार तालाब में नवीन जलके प्रवेश का अभाव होनेपर पहले का संचित पानी धीरे-धीरे सूखकर नष्ट होजाता है उसो प्रकार मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय और योग रूप समस्त आस्रवोंका अभाव होजाने पर पहले के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं और ध्यान में स्थित अर्थात् आत्मा में एक लोलोभाव-तन्मयो भावको प्राप्त हुआ योगी
जानता है अर्थात् केवलज्ञान को उत्पन्न करता है। अथवा शुक्लध्यान , रूप विशेष आगम की भाषा से केवली होता है, ऐसा भगवान् महावीर
ने कहा है ॥३०॥
१. यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा । मानन्न दृश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ॥१८॥
.. -समाधिशतके पूज्यपादस्य ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org