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-४ ४७-४८] बोधप्रामृतम्
२१३ सत्तमित्ते व समा पसंसणिदा अलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥७॥ शत्रुमित्रे च समा प्रशंसानिन्दाऽलब्धिलब्धिसमा ।
तृणकनके समभावा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥४७॥ ( सत्तूमित्ते व समा) शत्रौ वैरिणि, मित्रे सुहृदि समा रागद्वेष-रहिता । (पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा ) प्रशंसायां गुणस्तुती, निन्दायामवर्णवादे, लब्धी निरन्तराय-भोजने, अलब्धौ भोजनाद्यन्तराये च समा सदृशी प्रव्रज्या भवति । (तणकणए समभावा) तृणे कनके सुवर्णे च समभावा अनादरादर-रहिता । (पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या ईदृशी भणिता चिरन्तनाचार्यः प्रतिपादिता ॥ ४७ ॥ .
उत्तममज्झिमगेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खा । सम्वत्थ गिहिपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥४८॥
उत्तममध्यमगेहे दरिद्रे ईश्वरे निरपेक्षा ।
सर्वत्र गृहीतपिण्डा प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ॥ ४८ ॥ ( उत्तममज्झिमगेहे ) उत्तमगृहे उत्तुङ्गतोरणादि-सहिते राजसदनादौ, मध्यमगेहे नीचहे, तृणपर्णादिनिर्मिते, निरपेक्षा उचर्गृहं गच्छामि नीचैगृहं अहं न
गाथार्थ-जो शत्रु और मित्र में सम है, प्रशंसा, निन्दा, अलाभ और लाभ में सम है, तथा तृण और सुवर्ण में समभाव रखती है, ऐसी दीक्षा कही गई है ।।४७||
विशेषार्थ-शत्रु और मित्र में जो सम है अर्थात् राग द्वेष से रहित है, प्रशंसा अर्थात् गुणों की स्तुति, निन्दा अर्थात् अवर्णवाद-मिथ्यादोष कहना, लब्धि निरन्तराय भोजन होना और अलब्धि अर्थात् भोजन आदि में अन्तराय हो जाना इनमें जो सम है, तथा तृण और सुवर्ण में जो समभाव है-अनादर और आदर से रहित है, ऐसी जिनदीक्षा प्राचीन आचार्यों के द्वारा कही गई है ॥४७||
गाथार्थ-जो उत्तम मध्यम घरों एवं निर्धन और धनवान् के विषय में निरपेक्ष है, तथा जिसमें समस्त योग्य घरोंमें आहार ग्रहण किया जाता है ऐसी दीक्षा कही गई है ॥४८॥
विशेषार्थ-ऊचे तोरण आदि से सहित राजमहल उत्तमुग्रह कहलाते हैं, और तृण तथा पत्ते आदिसे निर्मित गृह नीचगृह कहलाते हैं। बीचके ।
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