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षटुप्राभूते
[ ४.४६
घणघण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई । कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ॥ ४६ ॥
धनधान्यवस्त्रदानं हिरण्यशयनासनादि छत्रादि । कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईदृशी भणिता ||४६ || ( घणघण्णवत्थदाणं ) घनं गवादि, धान्यं गोधूमादि वस्त्र पट्टाम्बरादि, एतेषां दानं विश्राणनं मुनयो न कुर्वन्ति । ( हिरण्णसयणासणाइ छत्ताइ ) हिरण्यं रूप्यघटितं नाणकं सुवर्णघटितं नाणकं ताम्ररूप्य मिश्र-घटितं नाणकं केवलताम्रादिघटितं नाणकं हिरण्यमुच्यते, तद्दानं मुनयो न कुर्वन्ति । शयनं अष्टशल्या खट्वा पल्यङ्कः तद्दान मुनयो न कुर्वन्ति । आसनं पीठं आदिशब्दात् पट्टलं, छत्रमातपत्रं आदिशब्दाद् ध्वजाचामरादिकं मुनयो न ददाति । ( कुद्दाणविरहरहिया ) कुत्सितदानस्य विशेषेण रहस्त्यागस्तेन रहिता ( पव्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रब्रज्या दीक्षेदृशी भणिता श्रीगौतम - स्वामिना वीरेण तीर्थं कृता प्रतिपादिता । इत्यनेन येऽनन्त-सरस्वती- नरसिंह--भारती - वासुदेव सरस्वती - प्रभृतयः सांन्यासिका अपि सन्तः कुत्सितानि दानानि ददति तन्मतं निराकृतमिति भावः ॥ ४६ ॥
गाथार्थ - धन धान्य तथा वस्त्रका दान, चाँदी सोना आदिका सिक्का तथा शय्या आसन और छत्र आदि खोटी वस्तुओंके दानसे जो रहित है, ऐसी दीक्षा कही गई है ॥४६॥
विशेषार्थ- - गाय आदिको धन कहते हैं, गेहू आदि को धान्य कहते हैं, पाट आदि के वस्त्रको वस्त्र कहते हैं, मुनि इनका दान नहीं करते हैं । चाँदी से बना सिक्का, सुवर्ण से बना सिक्का, तांबा और चाँदोके मेल से बना सिक्का और केवल ताम्बा आदिसे बना सिक्का हिरण्य कहलाता है, मुनि इनका दान नहीं करते हैं । आठ लकड़ियों को सलाकर बनाई हुई खाट तथा पलंग को शय्या कहते हैं, मुनि इसका दान नहीं करते हैं । पोठ तथा आदि शब्दसे पाटला आदिको आसन कहते हैं । घाम से रक्षा करने वाला छत्र तथा आदि शब्द से ध्वजा और चामर आदिका दान मुनि नहीं देते हैं । इस प्रकार जो उपर्युक्त खोटो वस्तुओंके नाना प्रकारके दान से रहित हैं, वह दीक्षा है, ऐसा श्री गौतम स्वामी तथा तीर्थंकर वीर भगवान ने कहा है । इस कथन से जो अनन्त सरस्वती नरसिंह, भारती, और वासुदेव सरस्वती आदि संन्यासी होते हुए भी कुत्सित दान देते हैं उनके मतका निराकरण हो जाता है ॥ ४६ ॥
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