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बोधप्राभूतस्
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अकरणस्य सन्मानाग्रासनादानस्य च सहनं सत्कार - पुरस्कारजयः, प्रज्ञापरीपहजयो, ज्ञानमदनिरासः, अज्ञानोऽयमिति वचनसहनमज्ञानपरीषहजयः, अदर्शनपरीषहजयोः लब्ध्यभावसहनं । तथा चोक्तमुमास्वामिना -
क्षुप्ति पासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रोचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवघया चनालाभ रोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानि ।
अकसाया - कषायरहिता प्रव्रज्या भवति । ( पावारंभ विमुक्का ) पापारम्भ - विमुक्ता सेवा कृषिवाणिज्यादिपापारम्भस्तस्माद्विमुक्ता ।
एतेन किमुक्तं भवति ? यद् द्राविडसंघा जैनाभासा वदन्ति तत्प्रत्युक्तम्वीएसु णत्थि जीवो उन्भसणं णत्थि फासुगं णत्थि ।
सावज्जं ण हु मष्णइ ण गणइ गिह कप्पियं अट्ठ ॥ १ ॥ कच्छं खेत्तं वसह वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो ।
व्हंतो सीयलनीरें पावं पउरं समज्जेदि ॥ २ ॥
( पब्वज्जा एरिसा भणिया ) प्रव्रज्या - दीक्षा ईदृशी भणिता ॥ ४५ ॥
अज्ञानी है, इस प्रकारके वचनोंका सहन करना, और २२ अदर्शन परीषह जय - ऋद्धि आदिके न होने पर भी गृहीत मार्गके प्रति अश्रद्धा न होने देना । जैसा कि उमास्वामी महाराज ने कहा है
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क्षुत्-सुधा, पिपासा, शोत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परीषह हैं । अकसाया - जिनदीक्षा कषायसे रहित होती है। इसके सिवाय पापारम्भ विमुक्का - सेवा, कृषि तथा व्यापार आदि पापके आरम्भसे रहित होती है । इस विशेषण से द्राविड - संघके जैनाभास जो यह कहते हैं कि
बोए - बीजों में जीव नहीं हैं, खड़े होकर भोजन करना आवश्यक नहीं है, प्रासु का विकल्प नहीं है, सावध - पापपूर्ण क्रियाके त्यागको धर्म नहीं मानते, गृह कार्यों में जो आत्तंध्यान होता है वह नहीं गिना जाता, इसका निराकरण हो जाता है ।
कछं - द्राविड संघोय जैनाभास कछवाड़ा, खेत, वसतिका तथा व्यापार कराकर जीवित रहते हैं, ठण्डे पानी में नहाते हैं, इस तरह प्रचुर पापका संचय करते हैं।
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जिनशासन में दीक्षा ऐसी कही गई है ॥४५॥
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