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-५. १२५]
भावप्राभूतम्
उद्भिज्ज उद्भिद्, महीपीठे भूमितले । चकार उक्तसमुच्चयार्थः, तेन रागद्वेषमोहादयो भावकर्मशाखादयोऽपि न रोहन्ति । ( तह कम्मबीयदड्ढे ) तथा कर्मबीजे दग्धे भस्मीकृते । ( भवंकुरो भावसवणाणं) भवाङ्करः संसारांकुरो जन्मलक्षणो नापि रोहति न प्रादुर्भवति । केषां, भावसवणाणं सम्यग्दृष्टिनिरम्बराणां दुर्लक्ष्यपरमात्मभावनाभावितानां भेदज्ञानवतां । उक्तं च
दुर्लक्ष्यं जयति परं ज्योतिर्वाचां गणः कवीन्द्राणां ।।
जलमिव वजे यस्मिन्नलब्धमध्यो बहिटुंठति ॥१॥ भावसवणो वि पावइ सुक्खाई दुहाई दव्वसवणो य । इय गाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होइ ॥१२५॥
भावश्रवणोपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रष्यश्रवणश्च । इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतो भव ॥१२५॥
व ॥१२५॥
विशेषार्थ-भाव मुनियोंकी महिमा बतलाते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार बीजके भस्म हो जाने पर पृथिवी के पृष्ठ पर नवीन अंकुर उत्पन्न नहीं होता है उसी प्रकार कर्म रूपी बोजके भस्म हो जाने पर भाव मुनियोंके अर्थात् सम्यक्त्व सहित दिगम्बर मुद्राके धारक अथवा बड़ी कठिनाई से लक्ष्यमें आने वाले परमात्मा की भावनासे सहित भेद-विज्ञानी मुनियोंके संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता अर्थात् उन्हें फिर जन्म धारण नहीं करना पड़ता वे नियम से सिद्ध हो जाते हैं। यथार्थ में परमात्मा की भावना अत्यन्त दुर्लक्ष्य है जैसा कि कहा भी है
दुर्लक्ष्य-वह दुर्लक्ष्य परम ज्योति जयवंत रहे जिसमें बड़े-बड़े कवियोंके वचनों का समूह वज्र में जलकी तरह भीतर प्रवेश न पाकर बाहर ही लौटता रहता है। ... इस गाथामें अंकुरो य के साथ जो चकार दिया है वह समुच्चयार्थक है अतः उससे यह अर्थ सूचित किया है कि द्रव्यकर्मरूपी बीजके भस्म हो जाने पर रागद्वेष मोह आदि भाव-कर्मको शाखा-प्रशाखाएं भी नहीं उत्पन्न होती हैं ।।१२४॥
गावार्थ-भाव श्रमण-सम्यग्दृष्टि मुनि सुखोंको प्राप्त होता है और द्रव्य श्रमण मिथ्यादृष्टि मुनि दुःखोंको प्राप्त करता है इस प्रकार दोनोंके गुण और दोषोंको जानकर भाव संयुक्त होओ ॥१२५।।
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