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षट्प्राभृते
[ ५.१२५
( भावसवणो वि पावइ ) भावश्रवण: सम्यग्दृष्टि दिगम्बरोऽपिं निश्चयेन प्राप्नोति लभते । कानि प्राप्नोति ( सुक्खाइं ) निजात्मोत्थपरमानन्दलक्षणनिकुलतासहितपरमानन्तसौख्यानि ( दुहाई दव्वसवणो य ) प्राप्नोतीति दीपकोद्यतात् दुःखानि शारीरमानसागन्तुकलक्षणोपलक्षितान्यसातानि द्रव्यश्रवणो मिथ्यादृष्टिदिगम्बरः प्राप्नोति । च शब्दाद्गृहस्थोऽपि सावद्यसंयुक्तो धनपूजास्नपनरहितः पर्वोपवासकातरः चलमलिनाङ्गरहित सम्यग्दर्शनदुर्विधो व्रतातिचारभग्नपुण्यपादो दूरभव्यतया गुरुचरणनिन्दक आत्महितो न भवति । लौंकस्तु महापापी जिनप्रति माच्छेदको नारकी भवति । तथा चाक्तं -
" सवं धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मकं क्वाप्येतद्द्वयवत् करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेतदिहान्धरज्जुवलनं स्नानं गजस्याथवा मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हि हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥ १ ॥
विशेषार्थ - जो भाव श्रमण है अर्थात् जिसने सम्यग्दर्शन के साथ दिगम्बर मुद्रा धारण को है वह निज आत्मासे उत्पन्न परमानन्द रूप निराकुलता से युक्त उत्कृष्ट अनन्त सुखोंको प्राप्त होता है और जो द्रव्य श्रमण है अर्थात् मिथ्यात्व सहित दिगम्बर मुद्राको धारण करने वाला है वह शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक दुःखों को प्राप्त होता है ।
'दव्व सवणो य' यहाँ जो 'च' शब्द दिया है उससे सूचित होता है कि जो गृहस्थ भी सावद्य – पाप पूर्ण कार्योंसे सहित है, दान पूजा और अभिषेक से रहित है, पर्व के दिन उपवास करने में कायर है, सर्वथा निर्मल तो दूर रहा चल मलिन और अङ्गहीन सम्यक्त्व से भी रहित है, व्रतों में अतिचार लगने से जिसका पुण्य रूपी पैर भग्न हो गया है और दूर भव्य होने से जो गुरु चरणों की निन्दा करता है वह आत्म- हितकारी नहीं है । जिन प्रतिमा का खण्डन करने वाला लोक महापापी है और इस महापापके फलस्वरूप मरकर नरक गतिका पात्र होता है। गृहस्थाश्रम की निन्दा करते हुए कहा गया है -
सर्व धर्ममयं - गृहस्थाश्रम में निर्बुद्धि मनुष्यों की बात जाने दो किन्तु प्रज्ञारूपी धनके धारक बुद्धिमान् मनुष्यों का भी समस्त चरित्र कहीं तो धर्ममय होता है, कहीं पापमय होता है और कहीं उभय रूप होता
१. आत्मानुशासने ।
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