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-५. १२६ ]
भावप्राभृतम् ( इय गाउं गुणदोसे ) इति ज्ञात्वा गुणदोषान् । ( भावेण य संजुदो होह ) भावेन जिनभक्तिनिजात्मभावनापंचगुरुचरणरेणुरंजितभालस्थलः संयुतो भव । एवं सति शं सुखं तेन युक्तो भव हे मुने ! हे जोवेति सम्बोधनं ।
तित्थयरगणहराई अन्भुदयपरंपराई सोक्खाई। पावंति भावसहिया संखेवि जिर्णोहि वज्जरियं ॥१२६॥
तीर्थकरगणधरादीनि अभ्युदयपरम्पराणि सौख्यानि ।
प्राप्नवन्ति भावसहिताः संक्षेपेन जिनैः कथितं ॥१२६॥ (तित्थयरगणहराई ) तीर्थकरगणधरादीनि सौख्यानीति सम्बन्धः । तीर्थकराणां धर्मोपदेशकाले तीर्थकराः कमलोपरि पादौ न्यस्यन्ति, अशोकवृक्षच्छायायामुपविशति, तेषामुपरि द्वादशयोजनमभिव्याप्य देवाः पुष्पवर्षणं विरचयन्ति, तानि
है। इसलिये गृहस्थों का चरित्र अन्धे पुरुषको रस्सी बटने के समान है अथवा हाथोके स्नानके समान है अथवा नशा में मस्त या पागल मनुष्य को चेष्टाके समान है । यथार्थ में गृहस्थाश्रम सर्वथा हितकारी नहीं है।
इस प्रकार गुण और दोषों को जानकर हे मुने! तू भावसे संयुक्त हो अर्थात् जिन-भक्ति और निज आत्माकी भावनासे सहित होता हुआ पञ्च गुरुओं की चरणरज से अपने ललाटतट को सुशोभित कर। ऐसा करने से ही तू शंयुक्त अर्थात् सुखसे सहित हो सकेगा ॥१२५॥ __ गाथार्थ-भाव सहित मुनि, तीर्थंकर और गणधर आदिके अभ्युदयों की परम्परा रूप अनेक सुखोंको प्राप्त होता है ऐसा संक्षेप से जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥१२६॥ ___जिनकी हृदय-स्थली सम्यक्त्व रूपी चिन्तामणि से अलंकृत है ऐसे
भाव मुनि तीर्थंकर और गणधर आदिके सुखोंको प्राप्त होते हैं। धर्मोपदेश . . के समय तीर्थंकर कमलों के ऊपर पैर रखते हैं,' अशोक वृक्षकी छाया में विराजमान होते हैं, उनके ऊपर बारह योजन तक की भूमिको व्याप्त कर देव पुष्प-वर्षा करते हैं, उन पुष्पों के मुख ऊपर की ओर, बोंड़ियां नोचेकी ओर रहती हैं । ये पुष्प घुटनों पर्यन्त बरसते हैं, जब मुनियोंका आगमन होता है तब मुनियों को उनमें मार्ग मिलता रहता है, भ्रमरों से सहित होते हैं, कमल उत्पल, कैरव, इन्दीवर, राजचम्पक, जाति, मुक्तबन्धन,
१. कमलों के ऊपर पैर रखना विहार के समय संगत होता है । उपदेश के समय ...तो सिंहासन पर अन्तरीक्ष पदमासन में ही विराजमान रहते हैं।
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