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________________ ५२० षट्प्राभृते [ ५. १२६ तु पुष्पाणि उपरि मुखानि अधोवृन्तानि अवतिष्ठन्ते, जानुपर्यंतं पतति, मुनीन मागमने मुनिपुङ्गवा मार्गं लभन्ते, भ्रमरपरीतानि कमलोत्पलकैरवेन्दीवरराजचं पंकजा - तिमुक्तबंघनाट्टहासवकुलकेतकमंदारसुन्दरनमे रुपारिजातसन्तानककल्हारशुक्लरक्तसेवत्रकमुचुकुन्दवृन्दानि पतन्ति, पंचाशल्लक्षद्वादशकोटिपटहा अपराणि च वादित्राणि वेणुवल्लकिपणवमृदंगत्रिविलतालकाहलकम्बुप्रभृतीनि संख्यातीतानि अम्ब - रचरकुमारकरास्फलितानि 'समुर्वन्तरिक्षलक्षाणि ध्वनन्ति, सजलजलधरगर्जितमिव स्वामिनो योजनैकं यावद्ध्वनिभव्यजनैराकर्ण्यते, हंसांसोज्ज्वलानि चतुःषष्ठिचामराणि पतन्त्युत्पतन्ति च, पंचशतधनुरुन्नतं सिंहविष्टरं भवति, योजनकप्रमाणं सभामभिव्याप्य कोटिभास्करयुगपदुद्यो' तिशरीरतेजो भवति, तच्च शारदेन्दुपरिपूर्णमण्डलमिव लोचनानां प्रियतमं भवति, एकदण्डानि उपर्युपरि त्रीणिच्छत्राणि मस्तकोपरि संभवन्ति । इत्यादीनि चतुस्त्रिशदतिशयपंचकल्याणादीनि जिनोत्तमानां सुखानि बाह्यानि भवन्ति, अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखानि चाभ्यन्तरसुखानि भगवतां भवन्ति । तथा भावश्रवणा ( नां ) गणधरदेवानां तीर्थंकरयुव राज्य सौख्यानि भवन्ति । ( अब्भुदयपरंपराइ सोक्खाइ ) इन्द्रपद - तीर्थंकर कल्याणत्रयलक्षणानि कल्याणपरम्पराणि सौख्यानि भावश्रवणा अभ्यन्तर अट्टास बकुल केतकी मन्दार सुन्दर नमेरू पारिजात सन्तानक कल्हार, सफेद गुलाब, लाल गुलाब और मुचुकुन्द आदि फूलोंके समूह बरसते हैं। साढ़े बारह करोड़ दुन्दुभि तथा बाँसुरी वीणा पणव मृदङ्ग त्रिविल ताल काहल और शङ्ख आदि असंख्यात बाजे देवकुमारोंके हाथोंसे ताड़ित होते. हुए पृथिवी और आकाश शब्द करते हैं। जल सहित मेघकी गर्जना के समान भगवान्की दिव्यध्वनि एक योजन तक भव्यजीवों के द्वारा सुनी जाती है। हंसके पङ्खों के समान उज्ज्वल चौंसठ चमर ढोरे जाते हैं । पांच सौधनुष ऊँचा सिंहासन होता है। एक योजन तक सभाको व्याप्त करके करोड़ों सूर्यके एक साथ फैलने वाले प्रकाशके समान भगवान् के शरीर का तेज होता है उनका वह तेज ( भामण्डल ) शरद् ऋतुके पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान नेत्रोंको अत्यन्त प्रिय होता है । एक दण्ड अर्थात् चार हाथ की ऊँचाई वाले तीन छत्र ऊपर-ऊपर मस्तक पर लगे होते हैं । इन सबको आदि लेकर चौंतोस अतिशय तथा पञ्चकल्याणक आदि बाह्य सुख १. 'समुर्व्यन्तरिक्षलक्ष्याणि' इति पाठः सम्यक् प्रतिभाति समन्तात् उव्यंन्तरिक्षयोः पृथिव्याकाशयोः लक्ष्याणि इति तदर्थः । २. दुद्योति म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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