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________________ षट्प्राभूते सलिलं जलमिति रूपकं । ( पाऊण ) ज्ञानपानीयं प्राप्य लब्ध्वा । के ते, ( भवियः) रलत्रययोग्या भव्यजीवाः ( भावेण ) भावेन जिनभक्त्या । उक्तं च 'सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका सपुनीता ज्जिनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥१॥ ( वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ) व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवा भवन्ति । ज्ञानजलं पीत्वा ज्ञानजलमाकर्ण्य तन्मध्ये बुडित्वा तदवगाह्य परममंगलभूताः शिवाः सिद्धा भवन्ति । इति सम्यग्ज्ञानमाहात्म्यं भगवता श्रीकुन्दकुन्दाचार्येण सूरिणोद्भावित भवतीति भावार्थः । जह वीयम्मि य दड्ढे ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे । तह कम्मवीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ॥१२४॥ यथा बोजे दग्धे नैव रोहति अंकुरश्च महीपोठे। तथा कर्मबीजे दग्धे भवांकुरो भावश्रवणानां ॥१२४॥ (जह बीयम्मि य दड्ढे) यथा येनप्रकारेण बीजे दग्धे भस्मीकृते । (ण वि रोहइ अंकुरो य महिवी?) नापि नैव रोहति प्रादुर्भवति । कोऽसौ ? अंकुरः अभिनव सुखयतु-जिस प्रकार सुखकी भूमि स्त्री कामो पुरुषको सुखी करती है उसो प्रकार सुखकी भूमि तथा जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमलोंको अवलोकन करने वाली सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्नो मुझे सुखी करे । जिस प्रकार शुद्ध शोल व्रतसे युक्त माता पूत्रको रक्षा करती है उसी प्रकार निरतिचार शोलव्रतों से युक्त सम्यग्दर्शन रूपो लक्ष्मी मेरो रक्षा करे और जिस प्रकार गुण रूपो आभूषणों से युक्त कन्या कुलका पवित्र करती है उसी प्रकार मूलगुण रूपो आभूषणोंसे सुशोभित सम्यग्दर्शन रूपो लक्ष्मो मुझे पवित्र करे । ज्ञान जल को पोकर, ज्ञान जलको सुकर और ज्ञान जलमें डूबकर भव्य जोव शिव-परममङ्गल-भूत-सिद्ध होते हैं । इस प्रकार भगवान् कुन्दकुन्द आचार्यने सम्यग्ज्ञानका माहात्म्य प्रकट किया है ।। १२३ ॥ गाथार्थ--जिस प्रकार बीजके जल जानेपर पृथिवी पर नया अंकुर उत्पन्न नहीं हाता है उसी प्रकार कर्म रूपो बोजके जल जाने पर भाव मुनिके संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता ॥१२४॥ १. रत्नकरमश्रावकाचारे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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