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-५. १२३] भावप्राभृतम्
५१५ लोयपरियरिए-लोकोत्तममंत्रसहितानित्यर्थः । तथा चानादिसिद्धमंत्रो गुरूपदेशान्मन्तव्यः । सूरिणा तु सूरिमंत्रः तिलकमंत्रो वृहल्लघुश्च निजगुरुसमीपादुपदेशात् ध्यातव्य इति भावार्थः । ( परसुरखेयरमहिए ) कथंभूतान् पंचगुरून्, नरसुरखेचरमहितान् नराणां नृपादीनां, सुराणां सौधर्मेन्द्रादीनां, खेचराणां विद्याधरचक्रवर्तिनां, महितान् अष्टविधपूजाद्रव्यर्भावपूजाभिश्च पूजितान् । पुनः कथंभूतान् पंचगुरून्, ( आराहणाणायगे ) आराधनाया नायकान् स्वामिन् इत्यर्थः । (वीरे ) वीरान् कर्मशत्रुक्षयकरणसमर्था निति भावार्थः ।
णाणमयबिमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ॥१२३॥
ज्ञानमयविमलशीतलसलिलं प्राप्य भव्या भावेन ।
व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवा भवन्ति । (पापमयबिमलसीयलसलिल ) ज्ञानेन निवृत्तं ज्ञानमयं सम्यग्ज्ञानमेव विमलं कर्ममलकलंकरहितं. शीतलं परमाल्हादलक्षणसुखोत्पादक एतद्विशेषणत्रयविशिष्टं
और भ्रकुटियुगल का अन्त भाग ये ध्यान के स्थान कहे हैं। इनमें से किसी एक स्थान में दूसरी ओरसे हटाकर चित्त को लगाना चाहिये। ,
इन मन्त्रोंके साथ अनादि सिद्ध मन्त्रको गुरुउपदेश से जानकर उसका ध्यान करना चाहिये । इसी तरह सूरिमन्त्र और छोटा बड़ा तिलक मन्त्र निज गुरुके पाससे प्राप्त कर उसका भी ध्यान करना चाहिये। ये पांचों 'परमेष्ठो मनुष्य देव और विद्याधर राजाओं के द्वारा पूजा की आठ द्रव्यों और भाव पूजा के द्वारा पूजित हैं। चतुर्विध आराधना के नायक हैं
और कर्म रूप शत्रु ओंका क्षय करने में समर्थ हैं ।।१२२॥ - गाथार्थ-भव्य जीव, ज्ञानरूपी निर्मल जलको प्राप्त कर जिन भक्तिके प्रभावसे जरा और मरण रूप रोगको वेदना तथा दाहसे मुक्त होते हुए सिद्ध हो जाते हैं ।।१२।।
विशेषार्थ जो रत्नत्रयको प्राप्त करनेकी योग्यता रखते हैं वे भव्य कहलाते हैं। ऐसे भव्य जीव, भाव अर्थात् जिन भक्ति अथवा जिनसम्यक्त्व से ज्ञान रूपी निर्मल-रागादि कर्ममल कलङ्कसे रहित और शीतल-परमाल्हाद रूप सुखके उत्पादक जलको प्राप्तकर व्याधिरूप जरा मरणको वेदना तथा दाहसे मुक्त होते हुए सिद्ध हो जाते हैं । यथार्थ
में सम्यक्त्व रूपी लक्ष्मी संब सुखको देनेवाली है जैसा कि कहा - गया है
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