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________________ २०५ -४. ४३] बोधप्रामृतम् सवसा सत्तं तित्थं वचचइदालत्तयं च वृत्तॊहैं। जिणभवणं अह वेझं जिणमग्गे जिणवरा विति ॥४३॥ स्ववशाः सत्वं तीर्थं वचञ्चैत्यालयश्च उक्तैः । जिनभवनं अथ वेध्यं जितमार्गे जिनवरा विदन्ति ॥४३॥ ( सवसा सत्तं तित्थं ) एते प्रदेशाः स्ववशाः पराधीनत्वरहिताः स्वाध्यायध्यानयोग्याः । तत्र स्थित्वा कि कर्तव्यमित्याह-सत्त-छिद्यमाने भिद्यमानेऽपि शत गाथार्थ--शून्यघर आदि स्थान स्ववश हैं-स्वाधीन हैं। इनमें रह कर मनिको सत्त्व, तीर्थ, जिनागम और जिनमन्दिर इनका ध्यान करना चाहिये; ऐसा जिनमार्ग में जिनेन्द्रदेव जानते हैं-कहते हैं ॥ ४३ ।। विशेषार्थ-४२ वो गाथा में शन्य घर आदि स्थानों में मनियों को निवास करने का आदेश दिया गया है, उसका कारण बताते हुए कहते हैं कि ये प्रदेश स्ववश हैं पराधीनता से रहित हैं, मुनिके स्वाध्याय और अध्ययन के योग्य हैं । इस गाथा में कहते हैं कि उक्त स्थानों में स्थित रह कर क्या करना चाहिये? मुनियोंको उक्त स्थानोंमें स्थित रह कर सत्व, तीर्थ, वचश्चैत्यालय-जिनागम और जिनभवन-अकृत्रिमचैत्यालयों का ध्यान करना चाहिये। अब सत्व आदि का स्वरूप स्पष्ट करते हैंअपने शरीर के छिदजाने भिदजाने अथवा सौ टुकड़े किये जाने पर भी व्रतको खण्डित नहीं करना, चारित्र को निश्चल रखना और ब्रह्मनर्य की रक्षा रखना हमारा कर्तव्य है, इस प्रकारके साहस को सत्व कहते हैं। द्वादशाङ्ग को तीर्थ कहते हैं अथवा ऊर्जयन्त-गिरनार आदि क्षेत्र तीर्थ कहलाते हैं। वचश्चैत्यालय का अर्थ परमागम, शब्दागम और १. अहवोझं ग० । ( अहव उज्झं त्याज्यं विति कथयन्ति, यत् स सर्वैरपि ... कुमतिकः आसक्तं व्याप्तं ) ग० टि. २. पं० जयचन्द्रजी ने 'वच चइदा लत्तयं च' की छाया 'वचश्चत्यालत्रिकं च' मानकर ऐसा अर्थ किया है-'बहुरि वच, चैत्य, आलय ऐसा त्रिक जे पूर्व उक्त कहिये आयतन आदिक परमार्थरूप, संयमी मुनि अरहन्त सिद्ध स्वरूप तिनिका नामके अक्षर रूप मन्त्र तथा तिनिकी आज्ञा रूप वाणी सो तो वच, अर तिनिके आकार धातु पाषाण को प्रतिमा स्थापन सो चैत्य, अर सो प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जामें स्थापिये ऐसा आलय मन्दिर यन्त्र पुस्तक ऐसा वच चैत्य आलय का त्रिक' । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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