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. षट्प्राभृते
[४.४३खण्डं क्रियमाणेऽपि निजशरीरे सत्वमखण्डितव्रतत्वं निश्चलचारित्र ब्रह्मचर्यत्वं रक्षणीयमिति सत्वं साहसः वेध्यं भवति, तथा तीर्थं द्वादशाङ्ग ऊर्जयन्तादि वेध्यं ध्यानीयं ध्यातव्यं ज्ञातव्यम् । ( वच चइदालत्तयं च बुत्तेहिं ) वचश्चत्यालयश्च परमागम-शब्दागमयुक्त्यागमपुस्तकं च वेध्यं ध्यातव्यं भवति । तथा चोक्तं
वारह अंगगिज्जा दंसणतिलया चरित्त वच्छहरा।
चउदस पुवाहरणा ठावेदव्वा य सुअदेवी ।। उक्त-जिनवचनप्रमाणतया । ( जिणभवणं अहवेज ) जिणभवनं जिनचंत्यालयः, अथ मंगलभूतं सर्वभव्यजीवमङ्गलकरं कृत्रिममाकृत्रिम च वेध्यं ध्यातव्यम् । तथा चोक्तं नेमिचन्द्रेण चामुण्डरायराजमल्ल-देवगुरुणा त्रिलोकसारग्रन्थे -
भववितरजोइस विमाणणरतिरियलोय जिणभवणे ।
सव्वामरिदणरवइ संपूजिय वंदिए वदे ॥ सर्वाकृत्रिमचैत्यालयसंख्यापरिज्ञानार्थ श्री पूज्यदेवरायर्या चक्रे
युक्त्यागम रूप जिन शास्त्र है। (सिद्धान्त शास्त्रको परमागम, व्याकरण साहित्यको शब्दागम और न्यायशास्त्र को युक्त्यागम कहते हैं । ) जैसा कि कहा है
वारह-द्वादशाङ्ग जिसका शरीर है, सम्यग्दर्शन जिसका तिलक है, चारित्र जिसका वस्त्र है, और चौदह पूर्व जिसके आभरण हैं, ऐसी श्रुत देवीको स्थापना करना चाहिये।
जिनभवन शब्द से मङ्गलभूत तथा समस्त भव्य जीवोंका मङ्गल करने वाले कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय समझना चाहिये । जिन वचन प्रमाण हैं और उनमें अकृत्रिम चैत्यालयोंका वर्णन है इसलिये वर्तमान में दृष्टि-गोचर न होते हुए भी उनका अस्तित्व स्वीकार्य है जैसा कि चामुण्डराय और राजमल्ल देवके गुरु नेमिचन्द्राचार्य ने त्रिलोकसार ग्रन्थ में कहा है
भवण-भवन-वासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक देव तथा निरतियंग्लोक-मध्यलोक में समस्त इन्द्रों और राजाओंके द्वारा पूजित और वंदित जो जिनभवन हैं, मैं उनकी वन्दना करता हूँ।
समस्त अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्याका परिज्ञान करानेके लिये श्री . पूज्यपाद स्वामीने आर्या छन्द लिखा है
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