SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोधप्राभृतम् नवनवचतुःशतानि च सप्त च नवतिः सहस्रागुणिता षट् च 1 पंचाशत्पचवियत्प्रहृताः पुनरत्र कोटयोऽष्टौ प्रोक्ताः ॥ -8.88] अकृत्रिम चैत्यालयानां संख्या यथा -- एकाशीत्यधिक चत्वारि शतानि सप्तनवतिसहस्राणि षट्पञ्चाशल्लक्षाणि अष्टौ कोटयो भवन्ति । एकैकचैत्यालयेऽष्टाधिकं शतं प्रतिमानां भवति । तासां संख्या यथा raकोडिसया पणवीसा लक्खा तेवण्ण सहससगवीसा । नवतिसय तह अडयाला जिणपडिम अकिट्टिमं वंदे || २०७ नवशतकोटयः पंचविशति कोटयश्च त्रिशल्लक्षा सप्तविंशतिसहस्राश्चवारि शतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि भवन्ति । ज्योतिषां व्यन्तराणां च चैत्यालयानां संख्या नास्ति । ( जिणमग्गे जिणवरा विति ) जिनमार्गे जिनशासने जिन - वरा विदन्ति जानन्ति । सत्वं, तीथं, शास्त्रं, पुस्तकं, जिनभवनं, प्रतिमाश्च एतत्सवं वेध्यं मुनीनां श्रावकाणां च सम्यग्दृष्टोनां वेध्यं ध्यानावलम्बनीयं वस्त्वर्हन्तः कथयन्ति । तद्ये न मानयन्ति ते मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति भावार्थः ॥ ४३ ॥ पंचमहव्वयजुत्ता पंचिदियसंजया णिरावेक्खा । सज्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छन्ति ॥ ४४ ॥ पञ्च महाब्रतयुक्ता पञ्चेन्द्रियसंयता निरपेक्षाः । स्वाध्यायध्यानयुक्ता मुनिवरवृषभा नोच्छन्ति ॥४४॥ नवनव-आठ करोड़ तिरेपन लाख संत्तानवे हजार चारसौ इक्यासी अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या है। एक एक चेत्यालय में एकसो आठ, कसौ आठ प्रतिमाएँ होती हैं सब चैत्यालयोंकी प्रतिमाओं की संख्या इस प्रकार है- . नवकोडि - नौ सौ पच्चीस करोड़ छप्पन लाख सत्ताईस हजार चार सो अड़तालीस । ज्योतिषी और व्यन्तर देवोंके चैत्यालयोंकी संख्या नहीं है क्योंकि उनके यहाँ असंख्यात चैत्यालय आगममें बतलाये हैं । जिनमार्ग - जिनशासन में अरहन्त देव ऐसा कहते हैं कि सत्व, तीर्थ, शास्त्र, पुस्तक, जिनभवन और जिन प्रतिमा ये सब, मुनियों, श्रावकों और अविरत सम्यग्दृष्टि जोवोंके ध्यानके आलम्बन हैं अर्थात् वे इनका ध्यान करते हैं । जो इन्हें नहीं मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं ॥ ४३ ॥ Jain Education International गाथार्थ - जो पाँच महाव्रतोंसे सहित हैं, जिन्होंने पाँच इन्द्रियोंको वश कर लिया है, जो प्रत्युपकार की वाञ्छासे रहित हैं और जो स्वा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy