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________________ ६.- १०५] मोक्षप्रामृतम् ६७९ मंत्रतन्मयत्वान्ममात्मायमेवाचार्यपदभागी वर्तते । श्रुतज्ञानोपदेशकत्वात् स्वपरमतविज्ञायकत्वात् भव्यजीवसम्बोधकत्वान्ममात्मायमेवोपाध्यायः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररत्नत्रयसाधकत्वात् सर्वद्वन्द्वविमुक्तत्वात् दीक्षाशिक्षायात्राप्रतिष्ठाद्यनेकधर्मकार्यनिश्चिन्ततयाऽऽत्मतत्वसाधकतया ममात्मायमेव सर्वसाधुर्वर्तते इति पंचपरमेष्ठिन आत्मनि तिष्ठन्तोति कारणात् । ( तम्हा आदा हू मे सरणं ) तस्मात्कारणादात्मा हु-स्फुटं मे मम शरणं संसारदुःखनिवारकत्वादतिमथनसमर्थः मम शरणं गतिरिति । सम्मत्तं सग्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव । चउरो चिट्ठहि आवे तह्मा आदा हु मे सरणं ॥१०५॥ सम्यक्त्वं सज्ज्ञानं सच्चरित्रं हि सत्तपश्चैव । चत्वारः तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा हु मे शरणम् ॥१०५॥ ( सम्मत सणाणं) 'सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनरत्नं सज्ज्ञानं समीचीनमवाधितं पूर्वापरविरोषरहितं . सम्यग्ज्ञानं । ( सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव ) सच्चारित्रं सम्यक्चारित्रं पापक्रियाविरमणलक्षणं परमोदासीनतास्वरूपं च सम्यक्चारित्रं, सत्तवं-समीचनं तपः इच्छानिरोधलक्षणं चेति । ( चउरो चिट्ठहि आदे ) एते चत्वारोऽपि परमाराधनापदार्थास्तिष्ठन्ति, क्व तिष्ठन्ति ? आत्मनि निजशुद्धबुद्धकआदि अनेक धर्म कार्योंकी निश्चिन्तता से तथा आत्मतत्व की साधकता से मेरी यह आत्मा ही साधु है। इस प्रकार पञ्चपरमेष्ठी रूप मेरी यह आत्मा ही मेरे लिये स्पष्ट रूप से शरण है-यही संसार सम्बन्धी दुःखोंका निवारक होनेसे मेरी पीड़ा को नष्ट करने में समर्थ है ॥१०४॥ गाथार्य-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप 'ये चारों आत्मा में स्थित हैं इसलिये आत्मा ही मेरा शरण है ।।१०५।। · विशेषार्थ-सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन रूपी रत्नको कहते हैं। समीचीन और अबाधित अर्थात् पूर्वापर विरोध से रहित जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। पापक्रियाओं से विरत होना तथा परम उदासीनता को धारण करना सम्यक्चारित्र है। और इच्छानिरोध हो जाना सम्यक्तप है। ये चारों ही परम आराधनाएं निज शुद्ध-बुद्ध स्वभावसे युक्त आत्मा में स्थित हैं। चूंकि आत्मा ही आत्मा का श्रदान करती है, आत्मा हो आत्मा के ज्ञानको करती है, आत्मा ही आत्मा के साथ एकलोली भाव ...तो सपा नास्ति। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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