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-३. २५ ] सूत्रप्रामृतम्
१३१ -'मैथुनाचरणे मूढ ! प्रियन्ते जन्तुकोटयः ।
योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिताः ॥१॥ कियन्तो जन्तवो म्रियन्त इति चेत् ? घाते घाते असंख्येयाः कोटयः । “पाए घाए असंखेज्जा" इति वचनात् ।
जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सा वि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पव्वया भणिया ॥२५॥ यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता । घोरं चरित्वा चारित्रं स्त्रीषु न प्रव्रज्या भणिता ।।२५॥
जैसा कि महाकवि शुभचन्द्र ने कहा है
मैथुनाचरणे-अरे मूर्ख प्राणी ! स्त्रियों के साथ मैथुन करने में उनके योनिरूप छिद्र में उत्पन्न हुए करोड़ों जीव लिङ्गके आघात से पीड़ित होकर मरते हैं। .
प्रश्न-कितने जीव मरते हैं ?
उत्तर-प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़। क्योंकि आगमका वचन है 'घाए घाए असंखेज्जा' अर्थात् लिङ्ग के प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं ॥२४॥ ___ गावार्थ-यदि स्त्री सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है तो वह भी मार्ग से युक्त
१. ज्ञानार्णवे शुभचन्द्रस्य । २. ग प्रती एवं टिप्पणी वर्तते–'यदि दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धा निर्मला सा स्त्री
मार्गे संयुक्ता उक्ता कथिता घोरं उन चरित्र चरित्वा आश्रयित्वा, स्त्रीषु निःपापा भणिता'। . पं० जयचन्द जी ने भी हिन्दी वचनिकामें 'पावया' को छाया 'पापका' स्वीकृत कर गाथाका यह अर्थ किया हैस्त्रीनि विषं जो स्त्री, दर्शन कहिये यथार्थ जिनमत की श्रद्धा करि शद्ध है सो भी मार्गकर संयुक्त कही हैं। जो घोर चारित्र तीव्र तपश्चरणादिक आचरण कर पापते रहित होय है तातें पाप-युक्त न कहिये। भावार्थस्त्रीनि विर्षे जो स्त्री सम्यक्त्व करि सहित होय और तपश्चरण कर तो पाप-रहित होय स्वर्ग • प्राप्त होय तातै प्रशंसा योग्य है अर स्त्री पर्याय
मोक्ष माहीं।
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