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________________ १३२ षट्प्राभृते [३. २५(जइ दंसणेण सुद्धा ) यदि दर्शनेन सम्यक्त्वरत्नेन शुद्धा निर्मला भवति । (उत्ता मग्गेण सा वि संजुता ) तदा मार्गेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणेन सापि . स्त्री च संयुक्ता भवति-पञ्चमगुणस्थानं प्राप्नोति, स्त्रीलिङ्ग छित्वा स्वर्गाने देवो भवति, ततश्च्युत्वा मनुष्यभवमुत्तमं प्राप्य मोक्षं लभते । उक्तं च । सम्यग्दर्शनसंशुद्धमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ।। अवि य वधो जीवाणं मेहुणसण्णाए होदि बहुगावं । तिलणालीए तत्तायसप्पवेसो व्व जोणीए ॥३५॥ त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ४० हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनी हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥१०॥ पुरुषार्थ कही गई है। वह कठिन चारित्रका आचरण करके स्वर्ग में उत्पन्न होती है, अतः स्त्रियों के दीक्षा नहीं कही गई है ॥२५॥ .. विशेषार्थ-यदि स्त्री सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से शुद्ध है तो वह सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी मार्ग से युक्त होती हुई पञ्चम गुणस्थान को प्राप्त होती है तथा स्त्रीलिङ्ग छेद कर स्वर्ग के अग्रभाग में देव होती है, वहां से च्युत होकर उत्तम मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होती है । जैसा कि कहा है सम्यग्दर्शन-सम्यग्दर्शन से शुद्ध चाण्डालको भी गणधरादिक देव, भस्म से छिपे हुए अङ्गार के समान अभ्यन्तर तेजसे युक्त देव कहते हैं। स्त्री यदि स्वर्ग भी जाती है तो स्त्री लिङ्ग को प्राप्त नहीं होती। यह भी महाकवि समन्तभद्र ने कहा है ३. 'यमिभिर्जन्म निविण्णर्दूषिता यद्यपि स्त्रियः । तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभवः ॥५६॥ ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः । निजवंशतिलकभूताः श्रुतसत्यसमान्विता नार्यः ॥५७॥ सतीत्वेन महत्वेन वृत्तने विनयेन च । विवेकेन स्त्रियः काश्विद् भूषयन्ति धरातलम् ॥५४॥ भावार्णके शुभचन्द्रस्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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