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________________ १३८ षट्प्राभूते आचारवान् श्रुताघारः प्रायश्चित्तासनादिदः । आयापायकथी दोषाभाषकोऽस्रावकोऽपि च ॥१॥ आचारवान् - 'आचार्य को आचारवान् श्रुताधार, प्रायश्चित्तद, आसवादिद, आयापाय कथी, दोषाभाषक, अस्रावक और संतोषकारी होना चाहिये अर्थात् आचार्य में आचारवत्त्व, श्रुताधारत्व, प्रायश्चित्त-दातृत्व, आसनादि- दातृत्व, आयापायकथित्व, दोषाभाषकत्व, अस्रावकत्व और संतोषकारित्व ये आठ गुण होते हैं । इनका खुलासा इस प्रकार है १. आचारवत्व-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यं इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करना तथा दूसरों से कराना आचारवत्व गुण है । २. श्रुताधारवत्य - जिसकी श्रुतज्ञान रूपी संपत्ति की कोई तुलना न कर सके उसे श्रुतधारी अथवा श्रुतज्ञानी कहते हैं। नौ पूर्व, दशपूर्व या चौदह पूर्व तक श्रुत ज्ञानको अथवा कल्प व्यवहार के धारण करने को आधारवत्त्व कहते हैं । ३. प्रायश्चित्तव - प्रायश्चित्त विषयक ज्ञानके रखने वाले को प्रायश्चित्तद कहते हैं जिन्होंने अनेकबार प्रायश्चित्त को देते हुए देखा है और जिन्होंने स्वयं भी अनेक बार उसका प्रयोग किया हो, स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण किया हो अथवा दूसरेको दिलवाया हो वह प्रायश्चित्तद अर्थात् प्रायश्चित्तको देने वाला है। दूसरे ग्रन्थोंमें इस गुणको व्यवहारपटुता कहा है। ४. आसनाविद – समाधि-मरण करने में प्रवृत्त हुए साधक साधुओं को आसन आदि देकर जो उनकी परिचर्या करते हैं वे आसनादिद-आसनादिको देनेवाले कहलाते हैं । इन्हें परिचारी अथवा प्रकारी कहते हैं । ५. आयापायकथी - आलोचना करने के लिये उद्यत हुए क्षपकसमाधि-मरण करने वाले साधु के गुण और दोषों के प्रकाशित करने वाले को आय पायकथी कहते हैं । अर्थात् जो क्षपक किसी प्रकार का अतिचार आदि न लगाकर सरल भावोंसे अपने दोषों की आलोचना करता है उसके गुण को प्रशंसा करते हैं और आलोचना में दोष लगाने वाले के दोष बतलाते हैं, वे आय-लाभ और अपाय-हानि का कथन करने वाले हैं । १. आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः । आयापार्यादिगुत्पीडोsपरिस्रावी सुखावहः ॥७७॥ Jain Education International [ ४. १-२ -धननारधर्मामृत अध्याय ९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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