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________________ -२.६] चारित्रप्राभृतम् एवं चिय णाऊण य सब्बे मिच्छत्तदोससंकाई । परिहरि सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण ॥६॥ एवं चैव ज्ञात्वा च सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शङ्कादीन् । परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन । ( एवं चिय णाऊण य ) एवं चैव ज्ञात्वा च । ( सव्वे मिच्छत्तदोस संकाई ) सर्वान् मिथ्यात्वदोषान् शङ्कादीन् । (परिहरि ) परिहर हे जीव ! त्वं परित्यज । कथंभूतान् ? ( सम्मत्तमला) सम्यक्त्वमलान् पूर्वोक्तश्लोककथितान् पञ्चविशतिदोषान् । कथंभूतान् ? ( जिणभणिया) सर्वज्ञभणितान् श्रीमद्भगवदहत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिपादितान् (तिविहजोएण) मनोवचनकायलक्षणकर्मयोगेन कृत्वा । किं तन्मूढत्रयम् ? लोकमूळे, पाखण्डिमूढं देवतामूढं चेति । तत्र लोकमूढं सूर्या? ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः । सन्ध्यासेवाग्निसत्कारो देहगेहाचना ( गेहदेहार्चना ) विधिः ॥ १॥ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मूत्रस्य निषेवणम् । रत्नवाहनभूवृक्षशस्त्रशैलादिसेवनम् ॥ २॥ 'आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । . गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढं निगद्यते ॥ ३ ॥ गाथार्थ-ऐसा जानकर हे भव्य जीवो ! जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए तथा सम्यक्त्व में मल उत्पन्न करने वाले शंका आदि मिथ्यात्व के दोषोंका तीनों योगों से परित्याग करो ॥६॥ विशेषार्थ--श्रीमान् भगवान् अरहन्त सर्वज्ञ वीतराग देव ने पूर्व श्लोक में सम्यग्दर्शनके जिन पच्चीस दोषोंका निरूपण किया है उन्हें मनोयोग, वचनयोग और काय योग इन तीनों योगोंसे छोड़ो । लोक . मूढता, पाखण्डि मूढता और देव-मूढताके भेदसे मूढताके तीन भेद हैं। उनमें से लोकमूढता का स्वरूप यह है- सूर्या?-सूर्य को अर्घ देना, ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्ति में धनका खर्च करना, सन्ध्या सेवा, अग्निका सत्कार करना, देहली की पूजा करना, गाय के पृष्ठ भागको नमस्कार करना, उसके मूत्रका सेवन करना, रत्न सवारी, पृथिवी, वृक्ष, शस्त्र तथा पर्वत आदि की सेवा करना, १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । Jain Education Internatio • For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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