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षट्नाभृते
[२.५वचनात् कर्तरि युट् प्रत्ययः। ( णाणस्स दसणस्स य समवण्णा होइ चारित) ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् समायोगाच्चारित्रं भवति ।
जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं। . विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि ॥५। . जिनज्ञानदृष्टिशुद्ध प्रथमं सम्यक्त्वचरणचारित्रम् । . द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि ॥ ५॥ ... ( जिणणाण दिट्ठिसुद्ध पढमं सम्मत्तचरण चारितं ) जिनस्य सर्वज्ञ वीतरागस्य सम्बन्धि यज्ज्ञानं दृष्टिदर्शनं च ताभ्यां शुद्धं पञ्चविंशति-दोष-रहितं प्रथमं तावदेकं सम्यक्त्वचरणचारित्र दर्शनाचारचारित्रं भवति । (विदियं संजमचरणं ) द्वितीयं संयमचरणं चारित्राचारलक्षणं चारित्रं भवति (जिणणाण सदेसियं तं पि ) जिनस्य सम्बन्धि यत्सम्यग्ज्ञानं तेन सन्देशितं सम्यङ् निरूपित तदपि चारित्रं भवति । उक्तञ्च
मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ ५॥
निरुक्त अर्थ है जो पदार्थोंको जाने और दर्शन शब्दका निरुक्त अर्थ है जो पदार्थोंको प्रतीति करे । यहाँ दर्शन शब्दसे प्रतोति अर्थ ही ग्राह्य है। जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानका समायोग होता है तब सम्यकचारित्र प्रगट होता है ।। ४ ॥
गाथार्थ-चारित्र के दो भेद हैं उनमें से पहला जिनेन्द्र-वीतराग सर्वज्ञदेवके ज्ञान और दर्शन से शुद्ध सम्यक्त्वचरण चारित्र है और दूसरा जिनेन्द्र देवके सम्यग्ज्ञान के द्वारा निरूपित संयम चरण चारित्र है ॥५॥
विशेषार्थ-सम्यक्त्वचरण चारित्रका दूसरा नाम दर्शनाचार चारित्र है। यह दर्शनाचार चारित्र सर्वज्ञ वीतरागके द्वारा प्रतिपादित ज्ञान और दर्शन से शुद्ध है अर्थात् आगे कहे जाने वाले पच्चीस दोषोंसे रहित है। तथा संयमचरण चारित्रका दूसरा नाम चारित्राचार है । यह चारित्राचार चारित्र जिनेन्द्र देव के सम्यग्ज्ञानके द्वारा अच्छी तरह निरूपित है। पच्चीस दोष इस प्रकार हैं
मढ़-त्रयम्-तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शङ्का आदि आठ दोष व सम्यग्दर्शन पच्चीस दोष हैं ॥५॥
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