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________________ -२.४] चारित्रप्राभृतम् स्येति भावः । कथंभूतास्त्रयोऽपि भावाः ? ( अक्सयामेया ) अक्षया अविनश्वराः अमेया अमर्यादीभूता अनन्तानन्ता इत्यर्थः । ज्ञानस्य तावदानन्त्यं भवत्येव लोकालोकव्यापकत्वात् । सम्यक्त्वचारित्रयोः कथमनन्तत्वं नियतात्मप्रदेश-स्थितत्वादिति चेन्न तयोरपि तत्सहचारित्वात् । यावन्मात्र ज्ञानं तावन्मात्रं सम्यग्दर्शनं सम्यक्चारित्रं च तेषामेकीभावनिश्चयात् ( तिण्हं पि सोहणत्थे ) त्रयाणामपि सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्राणां शोधनार्थे शोधननिमित्त । (जिणभणियं दुविह चारित्त) जिनैणितं प्रदिपादितं द्विविधं चारित्रं दर्शनाचार-चारित्राचार लक्षणं तद् वक्ष्यते ॥३॥ जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छियस्य य समवण्णा होइ चारित्तं ॥४॥ यद् जानाति तद् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् । ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम् ॥ ४ ॥ (जं जाणइ तं गाणं) यज्जानाति तज्ज्ञानं । (जं पिच्छइ तंच दंसणं भणिय ) यत्पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । "कृत्ययुटोऽन्यत्रापि च" इति सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र में अनन्तपना किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि वे नियत आत्म-प्रदेशों में हो स्थित रहते हैं ? तो उसका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र भी ज्ञान के ही सहचारी हैं। जितना विस्तृत ज्ञान है उतने ही विस्तृत सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र हैं, इस तरह उनमें एकीभावका निश्चय है अर्थात् तीनों एक रूप हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को शुद्धिका निमित्त जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा हुआ दर्शनाचार और चारित्राचार यह दो प्रकार का चारित्र है। . (यहां जो ज्ञानको लोकमलोक-व्यापी कहा है उसका तात्पर्य इतना है कि ज्ञान लोक तथा अलोकके पदार्थोंको जानता है। प्रदेशों की अपेक्षा . शान आत्म-द्रव्यके विस्तार के बराबर है, आत्माको छोड़कर वह लोक अलोकमें व्याप्त नहीं हो सकता।) ___गाथार्थ-जो जानता है वह ज्ञान है और जो प्रतीति करता है वह दर्शन कहा गया है । इन दोनोंके संयोगसे सम्यक्चारित्र होता है ॥४॥ .. विशेषार्थ-कृत्य संज्ञक प्रत्यय तथा युट् प्रत्यय कारण और अधि. करण के सिवाय अन्य अर्थ में भी देखे जाते हैं इस नियमसे यहां शान .. और दर्शन का युट् प्रत्यय का अर्थ में हुआ है इसलिये शान शब्दका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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