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________________ ५५४ षट्नाभृते [५. १५८( मोहमयगारवेहि य ) मोहः कलत्रपुत्रमित्रादिषु स्नेहः, मदो ज्ञानादिरष्टप्रकारो निजोन्नत्यं, गारवं शब्दगारद्धिगारक्सातगारवभेदेन त्रिविध । तत्र शब्दगारव वर्णोच्चारगर्वः, ऋद्धिगारवं शिष्यपुस्तककमण्डलुपिच्छपट्टादिभिरात्मोद्भावनं, सातगारवं भोजनपानादिसमुत्पन्नसौख्यलीलामदस्तैर्मोहमदगारवैः । चकार उक्तसमुच्चयार्थस्तेन निजपक्षीयसघनराजमान्य श्रावकादिभिरभिमानः। ( मक्का जे करुणभावसंजुत्ता) पूर्वोक्तोहादिभिर्ये मुक्ताः, करुणभावः कारुण्यं दयापरिणामस्तेन संयुक्ताः । ( ते सव्वदुरियखंभं ) ते मुनयः सर्वदुरितस्तंभं समस्तमला- : .. तिचारादिसमुत्पन्नं पापस्तंभ (हणंति चारित्तखग्गेण) घ्नन्ति चारित्रखड्गेन छिन्दन्ति निजनिर्मलसवृत्तनिस्त्रिशेनेति शेषः । गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमणिदो। तारावलिपरियरिओ पुणिमइंदुव्व पवणपहे ॥१५८॥ गुणगणमणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनीन्द्रः । तारावलिपरिकलितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे ॥१५८|| . ( गुणगणमणिमालाए ) गुणा अष्टाविंशतिमूलगुणाः दश धर्माः तिस्रो गुप्तयः अष्टादशशोलसहस्राणि द्वाविंशतिपरीषहाणां जय एते उत्तरगुणाः, गुणानां गणाः समूहा गुणगणास्त एव मणयो रत्नानि तेषां माला मुक्ताफलहारस्तया गुणगण विशेषार्थ-स्त्री-पुत्र तथा मित्र आदि में जो स्नेह है वह मोह कहलाता है, ज्ञान पूजा आदि के भेद से मद आठ प्रकार का है। शब्द गारव, ऋद्धि गारव और सात गारव के भेद से गारव के तीन भेद हैं। हमारे वर्णोका उच्चारण साफ और सुन्दर होता है इस प्रकारका गर्व होना वर्णोच्चार गारव है । शिष्य, पुस्तक, कमण्डलु, पीछी तथा पाटे आदि बाह्य सामग्री से अपने महत्व का प्रकट करना ऋद्धि गारव है और भोजन पान आदि से समुत्पन्न सुखका गर्व होना सात गारव है। चकार उक्त समुच्चयार्थक है अर्थात् कहने के जो बाकी रह गये हैं उनका समुच्चय करने वाला है इसलिये अपने पक्षके श्रावक धनवान् अथवा राज-मान्य हों इस बातका गर्व करना । जो मुनि इन मोह, मद और गारवों से मुक्त हैं तथा करुणा भाव-दया भावसे संयुक्त हैं वे सब प्रकार के दोष अथवा अतिचार आदि से समुत्पन्न पाप रूपी खम्भेको चारित्ररूपी खड्गके द्वारा नष्ट कर देते हैं। यथार्थ में निर्मल चारित्र के द्वारा ही पापका नाश होता है ॥१५७॥ गाथार्थ-जिस प्रकार आकाशमें ताराओंकी पंक्तिसे सहित पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार जिनमत रूपी आकाश में गुण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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