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-५. १५६-१५७] भावप्राभृतम्
५५३ मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा । विसयविसपुष्फफुल्लिय लुगंति मुणि गाणसत्यहि ॥१५६॥
मायावल्लोमशेषां मोहमहातरुवरे आरुढाम् ।
विषयविषपुष्पपुष्पिता लुनन्ति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः ॥१५६।। ( मायावेल्लि असेसा ) माया परवंचनस्वभावा सैव वल्ली प्रतानिनी तां मायावल्ली, अशेषां अनन्तानुबन्धिप्रभृतिचतुर्भेदसमग्रां । ( मोहमहातरुवरम्मि आरूढा) मोह एव तरुवरः पुत्रकलत्रमित्रादिस्नेहमहावृक्षस्तमारूढां चटितां । (विसयविसपुप्फफुल्लिय) विषया एव विषपुष्पाणि तैः पुष्पिता विषयविषपुष्पपुष्पिता तां । ( लुणंति मुणि गाणसत्येहिं ) लुनन्ति च्छिन्दन्ति, के ते ? मुनयः सम्यग्ज्ञानसमुपेता दिगम्बरगुरव इत्यर्थः । केन, ज्ञानशस्त्रेण सम्यग्ज्ञानशस्त्रेण परशुना इति शेषः ।
मोहमयगारवेहि य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता । ते सव्वदुरियखंभं हर्णति चारित्तखग्गेण ॥१५७॥
मोहमदगारवैः च मुक्ता ये करुणभावसंयुक्ताः।
ते सर्वदुरितस्तंभं ध्वन्ति चारित्रखड्गेन ।।१५७।। गांधार्थ-मोहरूपी महावृक्ष पर चढ़ी और विषय रूपी विष पुष्पोंसे फूली, माया रूपी सम्पूर्ण लताको मुनिगण ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा
छेदते हैं ॥१५६॥ - विशेषार्थ-स्त्री पुत्रादि के स्नेह में पड़ कर मनुष्य नाना प्रकार की माया करता है । मायाका स्वभाव दूसरों को ठगना है । यह माया अनन्ता. नुबन्धी आदिके भेद से चार प्रकार की है माया के द्वारा मनुष्य विषयों को प्राप्त कर प्रसन्न होता है। यहाँ आचार्य महाराज ने स्त्री-पुत्रादि के स्नेहरूपी मोहको महान् ऊँचे वृक्ष की उपमा दो है, मायाको लता की • सपमा दी है, विषय को विषपुष्प को उपमा दो है तथा ज्ञानको शस्त्र की उपमा दी है । इस प्रकार गाथा का अर्थ होता है कि मोहरूपी ऊँचे वृक्ष
पर चढ़ो एवं विषयरूपी विष पुष्पों से फूली माया रूपी लताको । सम्पूर्ण रूपसे मुनि ज्ञानरूपी शस्त्र के द्वारा छेदकर-काटकर दूर फेंक देते हैं ॥१५६||
गाचार्ष-जो मोह मद और गारव से रहित तथा करुणा भाव से मुक्त हैं ऐसे मुनि चारित्र रूपी खड़गके द्वारा समस्त पाप रूपी स्तम्भको भकर नष्ट करते हैं ।।१५७॥ ......
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