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________________ ५५२ षट्प्राभृते [५. १५५ महता कण्टेन जेतुमशक्या दुर्जयाः, प्रबलं प्रचुरं, बलं सामर्थ्य तेन उद्धरा उत्कटा ये कषायभटाः क्रोधमानमायालोभसुभटाः । ( कसायभडणिज्जिया जेहिं ) एवंविधा कषायभटा यनिर्जिता भारिता भूमो पातिताः ।। धण्णा ते भयवंता दंसणणाणग्गपवरहत्यहि । विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं ॥१५५॥ धन्यास्ते भगवन्तो दर्शनज्ञानाग्रप्रवरहस्ताभ्याम् । विषयमकरधरपतिता भव्या उत्तारिता यैः ॥१५५।। (धण्णा ते भयवंता ) धन्याः पुण्यवन्तः ते भगवन्तः इन्द्रादिपूजिताः अथवा भयं वांतं त्यक्तं यस्ते भयवन्ता निर्भयाः सप्तभयरहिताः (दसणणाणग्गपवरहत्यहिं ) दर्शनज्ञाने एव प्रवरौ बलवत्तरौ हस्तौ करौ दर्शनज्ञानप्रवराग्रहस्तौ ताभ्यां द्वाभ्यां हस्ताभ्यां करणभूताभ्यां । ( विसयमयरहरपडिया) विषय एव मकरधरः समुद्रः तत्र पतिता बुडिताः। ( भविया उत्तारिया जेहिं ) भव्यजीवा उत्तारिता हस्तावलम्बनं दत्वा उत्तारिताः संसारसुखक्षारसमुद्रस्य पारं नीताः, य:रवर्द्धमानश्रीगौतमस्वाम्यादिभिरिति मंगलाभिप्रायः । से युक्त जितेन्द्रियता रूप देदीप्यमान तलवार से दुर्जेय-बहुत भारी कष्टसे जीतने के अयोग्य एवं प्रचुर बलसे दुर्धर कषाय रूपी भटोंको-क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी योद्धाओं को मारकर भूमि पर गिरा दिया है। सबसे प्रबल शत्रु कषाय ही हैं इन्हें क्षमा और जितेन्द्रियता के द्वारा ही जीता जा सकता है जिन्होंने इन्हें जीत लिया है वे ही धोर वीर पुरुष हैं ।।१५४॥ गाथार्थ-वे भगवान् धन्य हैं जिन्होंने ज्ञान दर्शन रूपी श्रेष्ठ अग्रगामी हाथों के द्वारा विषय रूपी समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवों को उतार कर पार लगाया है ।।१५५॥ विशेषार्थ-इन्द्र आदि के द्वारा पूजित वे भगवान् धन्य हैं-अतिशय पुण्यवान हैं अथवा 'भयवन्ता' छाया मान कर शङ्का आदि सात भयों से रहित हैं जिन्होंने दर्शन और ज्ञान रूपी बलिष्ठ हाथों के द्वारा विषयरूपी मकराकर-समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवोंको निकाल कर पार लगा दिया है। यहाँ मङ्गल कामना से श्री वर्धमान भगवान् तथा गौतम स्वामी आदि की स्तुति की गई है ।।१५५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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