SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्प्राभृते [ ६.२५ स्थिता अनावर्तन्ते ते सुखेन तिष्ठन्ति ये आतपे स्थिता वर्तन्ते ते दुःखेन तिष्ठन्ति ( पडिवालंताण गुरुभेयं ) प्रतिपालयतां व्रतानि अनुतिष्ठतां स्वर्गों भवति तद्वरं संसारित्वेनापि ते सुखिनः । अव्रतानि प्रतिपालयतां नरके दुःखमनुभवतां अतिनिन्दितमिति महान् भेदो वर्तते । तथा चोक्तं पूज्यपादेनेष्टोपदेशग्रन्थे - ५८८ वरं व्रतैः पदं देवं नाव्रतैर्ब्रत नारकं । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ॥ १ ॥ दुःख प्राप्त होते हैं, वे न हों। दो मनुष्य कहीं जा रहे थे मार्ग में थक के कारण एक उनमें से एक छाया में बैठकर विश्राम कर रहा है और दूसरा घाममें बैठ कर विश्राम कर रहा है। जो छाया में बैठा है वह सुखसे बैठा हुआ अपने लक्ष्यका विचार कर रहा है, पर जो घाम बैठा है वह दुःख से बैठा हुआ अपने लक्ष्यका विचार कर रहा है । इस तरह छाया और घाम में बैठे हुए पुरुषों में जिस प्रकार महान् अन्तर है उसी प्रकार शुभोपयोग और अशुभोपयोग में स्थित जीवोंमें महान् अन्तर है । शुभोपयोग वाला जीव स्वर्ग में विश्राम कर वहीं से आने पर मनुष्यभव प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करता है और अशुभोपयोग वाला जीव नरकके दुःख वर्तमान में भोगता है और आगामी पर्यायको अनुकलता अनिश्चित है । तात्पर्य यह है कि शुभोपयोग सर्वथा हेय नहीं है किन्तु हेयाय उभय रूप है, शुद्धोपयोगकी अपेक्षा हेय है और अशुभोपयोगकी अपेक्षा अहे है | इतनी बात अवश्य है कि सम्यग्दृष्टि जीव शुभोपयोग करता हुआ भी उसे साक्षात् मोक्षका कारण नहीं मानता है किन्तु परम्परा से ही मोक्षका कारण मानता है। श्रीपूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश ग्रन्थ में कहा है वरं व्रत:- व्रतों के द्वारा देव-सम्बन्धी पद प्राप्त करना कुछ अच्छा है परन्तु अव्रत के द्वारा दुःखदायक नरक का पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है क्योंकि छाया और घाममें बैठकर प्रतीक्षा करने वालों में महान् भेद है । Jain Education International यथार्थ में श्री पूज्यपाद की यह कारिका कुन्दकुन्दस्वामी के 'वरवयतवेहि' - गाथा से अनुजीवित है ॥ २५ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy